आज हमारा गणतंत्र दिवस है, आज विचार का विषय यह है कि “आज के हालातों में देश में लोकतंत्र और गणतंत्र कायम रह पायेगा ?” वास्तव में गणतंत्र वो पद्धति है जिसमें सारे मतभेदों के बाद समस्त राजनीतिक दल देश के कल्याण के बारे में शुभ चिन्तन करें| भारत में ऐसा नहीं हो रहा है, यहाँ चुनाव में बड़े दलों के रूप में उभरे दल, तो एक दूसरे को समाप्त करने की बात खुले आम करते है | इस सबके लिए वे वो सब करने को तैयार रहते हैं, जो नैतिकता की परिभाषा से कोसों दूर होता है |
किसी भी राजनीतिक दल की विचारवृद्धि यात्रा के दो मार्ग है.| पहला दस-बीस साल कार्यकर्ता तैयार करो, वे पार्टी के विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री और अध्यक्ष बनें| दूसरा तरीका है | दूसरे दलों से तैयार नेता किसी भी प्रकार से अपने दल में लेकर आए| इसके लिए मान्य, अमान्य अर्थात साम ,दाम, दंड, भेद सब जायज | आपकी पार्टी का जनाधार [कैसे भी] बना हुआ है| उसके सहारे जीत हासिल करिए| न जीत पायें, तो फार्मूला मध्यप्रदेश अपनाइए | मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की बात “विधायक करोड़ो में खरीदे गये हैं” |यदि सही है, तो यह हमारे गणतंत्र के पराभव का काल है | वैसे पूरी दुनिया में किसी भी राजनीतिक दल के विकास में ऐसी चीजें होती रहती है| यह भारत में भी पहली बार नहीं हुआ है| किसी ज़माने में कांग्रेस इस तरह से जीत हासिल करती थी| बाद में जनता दल-जनता पार्टी के साथ ऐसा हुआ| आज भाजपा भी यही कर रही है| सबको याद होगा, संसद में आपातकाल का विधेयक लाने वाले जगजीवन राम बाद में जनता सरकार में उपप्रधानमंत्री बने थे|
अब जनाधार और कार्यकर्ताओं की बात है, तो मणिपुर का उदाहरण देखिए| लगभग २ दशको तक मणिपुर के भाजपा कार्यकर्ता एक विधायक नहीं जितवा पा रहे थे| अब दूसरे दलों के नेताओं के जरिये भाजपा ने वहां सरकार बना ली तो देश में कार्यकर्ताओं को खुशी ही मिलेगी, लेकिन ये भी सोचिये संदेश क्या गया ? ऐसे तो कई सालों वहां भाजपा की सरकार नहीं बनती और कार्यकर्ता लाठी खाते रहते| इस सबमें देखने वाली बात सिर्फ यह होती है कि इससे कहीं पार्टी की विचारधारा या सोच तो नहीं प्रभावित हो रहा |इसे सोचने वाले भाजपा कुछ नेता भाजपा से बेदखल कर दिए गये या वे खुद वापिस नहीं लौटे |
भाजपा यह सब एक रणनीति के तहत कर रही है| जहां भाजपा खुद मज़बूत नहीं है, वहां कांग्रेस समेत दूसरे दलों के नेताओं को अपनी ओर खींच रही है| इससे दो फायदे होते हैं. एक तो भाजपा मज़बूत होती है. उनके पक्ष में माहौल बनता है| वहीं दूसरी विपक्षी पार्टियां और कमज़ोर होती हैं. जहां तक बात कार्यकर्ताओं की है, तो उनमें थोड़ी नाराज़गी होती है | अभी जो भी नेता कांग्रेस या दूसरे दलों से आ रहे हैं, उनके पास किसी और दल में शामिल होने का विकल्प भी तो नहीं है.’
ऐसे में भाजपा का मूलाधार ‘संघ क्या सोचता है ? यह भी एक विचार का मुद्दा है ? खुलकर स्वयंसेवक कुछ नहीं बोलते पर जब भाजपा के भीतर कांग्रेस, सपाई और बसपाई दिखते हैं |तो उन से कैसे मिलते होंगे? क्या कहते होंगे ? क्या भाजपा बची है? दूसरे दलों से नेता भाजपा में तो आए पर उस संघ निष्ठा का क्या हुआ ?कभी सब कहते थे कि कांग्रेस में भी भाजपाई है| अब इससे उलट लोग कह रहे है, अब तो भाजपा ही कांग्रेस हैं|
अब बात कांग्रेस की | कांग्रेस की तासीर और राहुल गांधी तेवर यही इशारा कर रहे हैं वे अध्यक्ष पद फिर से संभालने जा रहे हैं। चर्चाओं में हमेशा की तरह यह भी है कि शायद कांग्रेस नेहरू परिवार से बाहर नेतृत्व की तलाश करे। हालांकि इस प्रश्न पर सोनिया या राहुल ने अभी तक स्पष्ट कुछ भी नहीं कहा है, लेकिन घटनाक्रम यही संकेत दे रहे हैं, कि राहुल गांधी ही पार्टी के नये अध्यक्ष हो ही जायेंगे । सिद्धांत: राजनीतिक दल प्रायवेट कंपनी की तरह नहीं चलाये जाने चाहिए, पर सभी दलों में नेतृत्व संबंधी फैसले परदे के पीछे चंद लोगों द्वारा करने की परिपाटी बनती जा रही है |जिस पर बाद में मुहर लगाने की औपचारिकता भी बखूबी निभा दी जाती है।
नेहरू परिवार का आभा मंडल सिमट जाने और जनाधार वाले नेता न पनपने से आज जो रिक्तता पैदा हो गई है, वो हालिया नहीं है ।कांग्रेस और भी कई अवसर पर नेता विशेष– परिवार विशेष के दायरे में सिमटी है, परिणामस्वरूप कांग्रेस में जनाधार वाले स्वाभिमानी नेताओं के बजाय दरबारी संस्कृति पनपी और अंतत: यही दरबारी संस्कृति कांग्रेस की राजनीतिक संस्कृति बन गयी।एक अवसर पर राजीव गांधी ने कांग्रेस को सत्ता के दलालों से मुक्त कराने की बात कही थी| सोनिया गांधी और फिर राहुल गांधी को दरबारी संस्कृति में जकड़ी कांग्रेस मिली।संप्रग सरकार जन आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी, यह वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम से साबित हो गया, जब तीन दशक के बाद किसी अकेले दल के रूप में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और कांग्रेस महज ४४ सीटों पर सिमट गयी।
अब बमुश्किल ५२ सीटों पर है । चौतरफा आलोचनाओं के बीच हताश राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर नेहरू परिवार के बाहर से अध्यक्ष चुनने की नसीहत दी थी। यह इतना आसान नहीं था। इसलिए भी दरबारियों ने फिर से सोनिया गांधी को ही, अंतरिम अध्यक्ष के रूप में, कमान सौंप दी। तब से अब तक बहुत समय गुजर गया। कांग्रेस के सुधारकों ने सोनिया को सामूहिक नेतृत्व और आंतरिक लोकतंत्र के लिए पत्र भी लिखा, पर कांग्रेस जहां की तहां बनी रही।
कई दिनों से संकेत मिलने लगे है कि पुराने अध्यक्ष राहुल गांधी ही कांग्रेस के नये अध्यक्ष भी होंगे। राहुल ने हाल ही में जिस आक्रामक अंदाज में मोदी सरकार पर हमला बोला है, उससे भी यही संकेत मिलता है कि वह पुन: कांग्रेस की कमान संभालने को तैयार हो गये हैं। शायद मौजूदा हालात में कांग्रेस के लिए यही बेहतर भी हो, पर क्या इससे कांग्रेस की दशा-दिशा बदल पायेगी?
अब सवाल भाजपा और कांग्रेस का नहीं उस एक दल की तलाश का जिसके प्रयासों से भारत का गणतंत्र वन वे ट्राफिक होने से बच सके | अगर आप इन दोनों से इतर कुछ सोचते हैं, तो मुखर हो जाइए, गणतंत्र आपको पुकार रहा है |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।