भोपाल। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में गरीब-गुरुबों की बस्ती में वेक्सीन को लेकर जो खबर फैली वो उस सब परपानी फेरने के लिए पर्याप्त है जिसे राहत शब्द से परिभाषित किया जाता है | एक साल से सारा विश्व जिस त्रासदी से दो-दो हाथ कर रहा है उस कोरोना संक्रमण में लगातार आई गिरावट से जन-जीवन सामान्य होने की ओर बढ़ा है, वहीं वेक्सीन के परीक्षण के नाम पर हो रहे हादसे भ्रम और सरकार द्वारा साधी गई चुप्पी कुछ नया गुल भी खिला सकती है | फ़िलहाल देश में बन रही दो वैक्सीनों की आपातकालीन मंजूरी ने देश में भरोसे का माहौल बनाया, जिस पर भोपाल जैसी घटनाये प्रश्न चिन्ह हैं |
वैसे पिछले शनिवार को देश के ११६ जिलों में २५९ टीका केंद्रों पर टीकाकरण का अभ्यास किया गया ताकि जब वास्तविक टीकाकरण अभियान शुरू हो तो कोई परेशानी सामने न आये। कोरोना के खिलाफ निर्णायक जंग के मद्देनजर रविवार को देश के ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने सीरम इंस्टीट्यूट में तैयार हो रही कोविशील्ड और भारत बॉयोटेक की कोवैक्सीन के आपातकालीन उपयोग की अनुमति दे दी। निस्संदेह भारत वैक्सीन उत्पादन में दुनिया में अव्वल रहा है, जिसका लाभ इस चुनौती के मुकाबले में मिलेगा। बताया जा रहा है कि सीरम इंस्टीट्यूट ने अभी तक पांच करोड़ वैक्सीन तैयार कर ली है। यह वैक्सीन भारत में जरूर तैयार हो रही है लेकिन मूल रूप से यह ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका का भारतीय संस्करण है। जैसा कि दशकों से प्रचलित और सुरक्षित पोलियो वैक्सीन को लेकर देश व पाक-अफगानिस्तान आदि देशों में सवाल उठाये जाते रहे हैं, वैसे ही राजनीति कोरोना से निपटने वाली वैक्सीन को लेकर भी शुरू हो गई है।
कांग्रेस नेता शशि थरूर ने ट्वीट के जरिये भारत बायोटेक व इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च यानी आईसीएमआर द्वारा मिलकर तैयार कोवैक्सीन पर सवाल खड़े किये हैं। उनकी दलील है कि इस वैक्सीन के तीसरे चरण के ट्रायल के परिणाम सार्वजनिक नहीं किये गये हैं, जिससे वैक्सीन को लेकर सवाल खड़े किये जा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि रूस व चीन ने तीसरे चरण के ट्रायल के परिणाम सामने आये बिना ही अपने यहां वैक्सीनेशन को मंजूरी दी है। इसके बाद कांग्रेसी नेता जयराम रमेश और सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी कोवैक्सीन को लेकर सवाल खड़े किये हैं।
सब जानते हैं कि कोरोना संकट की भयावहता को देखते हुए दुनिया में जिंदगी को पटरी पर लाने के लिये रिकॉर्ड समय में वैक्सीन तैयार की गई है। ऐसी ही कोशिश भारत में भी की गई है, जिसके चलते वैक्सीन राष्ट्रवाद की मुहिम चली है। इसे आत्मनिर्भर भारत का विस्तार बताया जा रहा है। दरअसल, वैक्सीन अभियान को अंतिम रूप देने के लिये पूरी दुनिया में नियामक बाधाओं को दूर करके वैक्सीन हासिल करने की प्रक्रिया को सरल बनाया गया। ऐसा कोरोना संकट से उबार कर जन-जीवन सामान्य बनाने के क्रम में ही किया गया है।
इसके बावजूद सरकारों व नियामक संस्थाओं का दायित्व बनता है कि ट्रायल के आंकड़ों में पारदर्शी व्यवहार दिखाई दे। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो लोगों के भरोसे पर प्रभाव पड़ता है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन इसे ओछी राजनीति बताते हैं और कहते हैं कि वैक्सीन को अंतिम रूप देने में विज्ञान सम्मत प्रोटोकॉल का पूरी तरह से पालन किया गया है।
वास्तव में ऐसे विरोध से हम स्वदेशी उपलब्धि और वैज्ञानिकों व शोधकर्ताओं के मनोबल को कम करके दिखा रहे हैं। सरकार तो यहां तक दलील दे रही है कि वैक्सीन कोरोना के नये वैरिएंट पर भी पूरी तरह प्रभावी है। वहीं भारत बॉयोटेक का दावा है कि इस वैक्सीन को उन लोगों तक पहुंचाने का लक्ष्य है, जिनको इसकी अधिक जरूरत है। इस वैक्सीन ने भरोसे के सुरक्षा आंकड़े दिये हैं और वायरल प्रोट्रीन के खिलाफ मजबूत प्रतिरक्षा प्रदान की है। इसकी दो खुराक का साठ प्रतिशत से अधिक असर है। दरअसल, सरकार की कोशिश है कि कोविशील्ड को मुख्य वैक्सीन के रूप में इस्तेमाल किया जाये तथा कोवैक्सीन को दूसरी पंक्ति का रक्षा कवच बनाया जाये। तब तक कोवैक्सीन के अंतिम आंकड़े उपलब्ध हो सकेंगे। बहरहाल, देश में वैक्सीन उत्पादन को भारतीय वैज्ञानिक समुदाय की सफलता के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसके चलते हमें कारगर वैक्सीन के लिये दुनिया के बड़े देशों पर निर्भर नहीं रहना पड़ा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।