सदोष परिरोध का अपराध, का अर्थ है कि किसी व्यक्ति को एक परिसीमा (तय समय) के अंतर्गत रोककर रखना। बहुत से पुलिस अधिकारी अपने थाने में आरोपी या अपराधी को तीन से अधिक दिन तक रोक कर रखते हैं, वारण्ट के निष्पादन की सूचना मजिस्ट्रेट तक नहीं पहुंचने देते हैं और सामान्य व्यक्ति को लगता है कि पुलिस अधिकारी ने उसे कानून के अंतर्गत परिरोध किया है लेकिन पुलिस अधिकारी का यह कृत्य विभागीय कर्त्तव्य अपेक्षा न होकर अपराधिक मामला होगा (इसका विवरण निर्णायक वाद में बताएगे)।
भारतीय दण्ड संहिता,1860 की धारा 343 की परिभाषा:-
अगर कोई भी व्यक्ति (अर्थात लोकसेवक भी) किसी व्यक्ति को तीन या उससे अधिक दिनों के लिए किसी स्थान, होटल, परिसर, मकान आदि में रोककर रखेगा तब ऐसा करने वाला व्यक्ति धारा 343 के अंतर्गत दोषी होगा।
नोट:- किसी व्यक्ति को जरूरी नही की शारिरिक बल द्वारा ही रोक जाए। कमरे में बंद या रास्ते को बंद करके भी रोकना किस धारा के अंतर्गत अपराध माना जाता है।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 343 के अंतर्गत दण्ड का प्रावधान:-
यह अपराध किसी भी प्रकार से समझौता योग्य नहीं है, यह संज्ञेय एवं जमानतीय अपराध होते हैं। इनकी सुनवाई का अधिकार किसी भी मजिस्ट्रेट को होता है। सजा- इस अपराध के लिए दो वर्ष की कारावास या जुर्माना या दोनों से दाण्डित किया जा सकता है।
उधरणानुसार वाद (निर्णायक वाद):- एसए अजीज बनाम पासम हरिबाबू एवं अन्य- इस वाद में पुलिस अधिकारी ने अजमानतीय वारण्ट के निष्पादन में अभियुक्त को गिरफ्तार कर एक हफ्ते थाने में रोककर रखा उसके बाद मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया। न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया कि पुलिस अधिकारी का यह कृत्य धारा 343 के अधीन दण्डनीय अपराध है। इस कृत्य को उसके पदीय कर्तव्य से संबंध नहीं माना जा सकता है। ऐसे पुलिस अधिकारी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही संस्थित किए जाने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 197 के अधीन मंजूरी की आवश्यकता नहीं है।
:- लेखक बी. आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665 | (Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article)
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