आज "आध्यात्मिक" जीवन बिताने का अर्थ जनसाधारण में लोक- जीवन को उपेक्षित मानने से होता है। अकसर लोगों में यह धारणा भी कम नहीं फैली है कि 'यह संसार क्षणभंगुर' है, 'माया है' 'इसका त्याग करने पर मोक्ष-कल्याण की मंजिल प्राप्त हो सकती है। ' इसी धारणा से प्रेरित होकर बहुत से लोग अपना कर्त्तव्य, अपनी जिम्मेदारियाँ छोड़ बैठते हैं। अपना घर-बार छोड़ बैठते हैं। लेकिन यदि घर-गृहस्थी को छोड़ना, अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़ना ही आध्यात्मिक पथ पर बढ़ने का प्रथम चिह्न है तो सारे ऋषियों को हमें आध्यात्मिक इतिहास से हटाना पड़ेगा। क्योंकि प्रायः सभी ऋषि- महर्षि गृहस्थ थे। जनसाधारण का स्वाभाविक सहज जीवन बिताते थे। गुरुकुल पाठशालाएँ चलाते थे। जनता के धर्मशिक्षण का दायित्य पूरी तरह निभाते थे।
ऋषियों ने संन्यास आश्रम की व्यवस्था करके घर छोड़ने की बात भी कही थी लेकिन जीवन के शेष चौथे भाग में, वृद्धावस्था में वह भी मुक्ति के लिए नहीं, अपितु जीवनभर अर्जित ज्ञान से समाज को लाभान्वित करने, परमार्थ का जीवन बिताने के लिए। सांसारिक दृष्टि से भी धर्म-अर्थ- काम के बाद फिर मोक्ष का नंबर आता है। खेद होता है जब लोग विभिन्न परिस्थितियों में जीवन के निखरे बिना, संस्कारित हुए बिना अपने स्वाभाविक जीवनपथ को छोड़कर संसार को छोड़ते हैं, अपने कर्त्तव्य- उत्तरदायित्वों से मुँह मोड़ते हैं। चूँकि उनकी वृत्तियाँ परिमार्जित तो होती नहीं, इसलिए आगे चलकर अनेकों द्विविधाओं- द्वंद्वों में पड़कर वे अशांति और असंतोष का जीवन बिताते हैं। अपने आप को कोसने लगते हैं। संसार में क्षणभंगुरता के पाठ को पढ़कर न जाने कितने होनहार व्यक्तियों का जीवन नष्ट हो जाता है। अपने लिए या समाज के लिए वे जो कोई महत्त्वपूर्ण कार्य करते वह तो होता ही नहीं, उलटे ऐसे लोग समाज पर भारस्वरूप बनकर रहने लगते हैं। क्योंकि शरीर रहते कोई कितना ही त्यागी बने उसे भोजन, वस्त्र आदि की आवश्यकता तो होती ही है।
वस्तुत: "मुक्ति" जीवन के सहज विश्वासक्रम की वह अवस्था है, जहाँ मानवीय चेतना सर्वव्यापी विश्व चेतना से युक्त होकर स्पंदित होने लगती है और उसमें से परमार्थ कार्यों का मधुर संगीत गूँजने लगता है। तब व्यक्ति अपने सुख, अपने लाभ, अपनी मुक्ति को भूलकर सबके कल्याण के लिए लग जाता है। इस ऊँची मंजिल तक सांसारिक परिस्थितियों में साधनामय जीवन बिताने से ही पहुँचा जा सकता है। जिस तरह बिना सीढ़ियों के छत पर नहीं पहुँचा जा सकता, उसी तरह संसार में अपने कर्त्तव्य, उत्तरदायित्वों को पूर्ण किए बिना जीवन्मुक्ति की मंजिल तक नहीं पहुँचा जा सकता। ऋषियों ने जीवन के सहज पथ का अनुगमन करके पारिवारिक जीवन में रहकर ही अपूर्व आध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त किया था और ब्रह्म का साक्षात्कार भी किया था।