कहने को भारत में १९४७ के बाद से लोकतंत्र आया है, इससे पहले गुलामी और उससे पहले राजे- रजवाड़ों का शासन इस देश ने भोगा है | सात दशक के बाद भी देश का प्रजातंत्र प्रजातांत्रिक ढांचे में नहीं ढल पाया है | प्रजातंत्र के मन्दिरों में आज भी समाज के अन्य वर्गों से आये प्रतिनिधि महाराजा – राजा के सामने कोर्निश बजाते नज़र आते हैं | पुराने शासकों यथा “महाराजा”, “राजा”, “जागीरदार” से लेकर “ठिकानेदारों” के वंशज प्रजा के धन से निर्मित भवनों में शान से सुख भोग रहे हैं | अब इधर से उधर जाने के सुख के साथ अपने अभीष्ट साधने के लिए अपनी नजर राज्य की सर्वोच्च प्रजातांत्रिक पद की आसंदी पर लगाये हुए हैं |पिछले ७ दशको के कई बार ये तत्व सफल भी हुए, उस दौरान उनके मिजाज में कायम “ठसक” ने उन्हें कभी “प्रजातांत्रिक” नहीं होने दिया |
देश में प्रजातंत्र लाने और उसे कायम रखने का श्रेय बखानने वाले राजनीतिक दलों में भी दूर की कौड़ी की तरह प्रजातंत्र दिखता है | किसी एक की रूचि परिवारवाद के चलते मसनद पर ताउम्र मचकने में हैं तो दूसरे की रूचि सन्गठन को मनोनयन से चलाने की है | कोई नहीं चाहता कि दल में आंतरिक प्रजातंत्र कायम हो | कारण साफ़ है कैसे भी उस व्यवस्था पर कब्जा बनाये रखना है जिससे देश के संसाधनों का अपने और अपनों हित में उपयोग किया जा सकें | देश की खरीदी बेचीं जा रही धरोहरे इसका जीता जागता उदहारण है |
इन दिनों देश में जो कुछ घट रहा है, उसे प्रजातंत्र की कसौटी पर कसें तो उत्तर नकारात्मक ही आएगा | देश के एक सूबे में सरकार पलट का खेल किसी महाराजा की अगुवाई में होता है तो दूसरी तरफ से खेल का गोलकीपर कोई राजा होता है | पडौस के सूबे में किसी ठिकानेदार की पीढ़ी ऐसे ही खेल में जोर आजमाती है यहाँ भी किसी रियासत की महारानी अपने फतवे जारी करती रहती है | हद तो यह है संसद और विधानसभा की ओर जाती इन सामन्तो की पालकी को ढोने में जो क्न्धे लगे हैं , वे ७० साल में लहुलुहान हो गये हैं |
भारत में आज तक मतदान की कोई ऐसी निरापद पद्धति इजाद नहीं हो सकी है , जो चुनाव को जाति, धर्म, लोभ लालच और भय से मुक्त कर सके | महल, जागीर और ठिकाने में मतदाता सूची आदेश में बदल जाती है | इन्ही में से एक नई बाहुबली किस्म भी निकलती है, जो उनके वोट न गिरने पर मतदाता को गोली से गिराने की धमकी तक देता है | चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बड़ी और महत्वपूर्ण है पर उसके हाथ छोटे हैं | इन हाथों को ताकतवर बनाने में किसी भी राजनीतिक प्रभु की इच्छा नहीं है |
आज देश का प्रजातंत्र महाराजा, राजा जागीरदार और ठिकानेदारों की मसनद के नीचे सिसक रहा है | उसकी आम परिभाषा जनता के लिए जनता के द्वारा जनता का शासन न जाने कहाँ खो गई है | देश में शासकों की इनसे इतर जो नई पौध देश तैयार भी हो रही है, उसके “आइडल” भी महाराजा, राजा, जागीरदार और ठिकानेदार ही है | देश की वर्तमान अवस्था को देखते हए मसनदो पर मचकते लोगों को प्रजातांत्रिक व्यवस्था का प्रशिक्षण जरूरी है और इसी का नाम है व्यवस्था परिवर्तन |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।