इस दुष्काल ने जीवन, आजीविका, शिक्षा और स्वास्थ्य को प्रभावित किया है। इसकी चुनौतियों से पार पाने के लिए दुनिया भर में कई नवाचार हुए हैं और उनके अनुसार आम नागरिकों और सरकार ने भी कुछ तौर-तरीके भी बदले गए हैं, लेकिन इनका लाभ चंद लोगों को ही मिल सका, सभी को नहीं। यह स्थिति सारे विश्व में एक समान है, भारत में यह कुछ ज्यादा दिखाई देता है |
विश्व और देश का सम्पूर्ण चित्र देखें, तो बेहतर स्वास्थ्य-व्यवहार अपनाने के उपाय, स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचों की सीमाएं, मानव संसाधनों की उपलब्धता में कमी और आपूर्ति शृंखला में रुकावट जैसी समस्याएं व्यापक तौर पर देखी गई हैं। वैसे ये सभी दुष्काल की देन नहीं थीं, बल्कि कई तो पहले से हमारे समाज में मौजूद थीं लेकिन दुष्काल के दौरान ये सभी समस्याएं कहीं ज्यादा गहरी नजर आईं।
सबने देखा कि किस तरह से संक्रमण से बचाव और उससे निपटने जैसे कामों में स्वास्थ्यकर्मियों को लगाया गया। उन्हें अपनी नियमित जिम्मेदारियों से अलग कर दिया गया, जिस कारण उन सेवाओं में स्वास्थ्यकर्मियों की कमी हो गई। इसी तरह, कोरोना मरीजों की जांच और इलाज के लिए स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी सुविधाएं इस्तेमाल की जाने लगीं, जिससे नियमित सेवाएं उन सुविधाओं से महरूम हो गईं।
आपूर्ति शृंखला लॉकडाउन के कारण से आपूर्ति शृंखला बाधित हो गई । इन सभी से नियमित स्वास्थ्य सेवाएं, जैसे नियमित टीकाकरण, टीबी के मरीजों की जांच व इलाज, मातृ एवं बाल स्वास्थ्य देखभाल और पोषण संबंधी कार्यक्रमों में खासा रुकावट पैदा हुई। वैसे भारत के लिए नवाचार कोई नई घटना नहीं है। इस दुष्काल के कुछ महीनों में ही ऐसे कई प्रयोग हुए, जो स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोगों की कुछ समस्याओं को हल करते दिखे। कम से कम इन चार मामलों में खासा नवाचार हुआ।
पहला-, प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना। दूसरा, सामुदायिक (सोशल) मंचों का फायदा लेना। तीसरा, अग्रिम पंक्ति के कर्मियों को सशक्त बनाना और चौथा, आपूर्ति शृंखलाओं में बढ़ोतरी करना।ज्यादातर नवाचारों में डिजिटल प्लेटफॉर्म का लाभ उठाया गया। जैसे, सुदूर इलाकों में ऑनलाइन काउंसिलिंग की गई और लोगों को परामर्श दिए गए; राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों की निगरानी के लिए बाल विकास-निगरानी एप बनाया गया; उत्तर प्रदेश में नियमित टीकाकरण के बारे में लाभार्थी समाज के लिए ‘रिमांइडर कॉल’ की व्यवस्था की गई; गुजरात, केरल और पंजाब में अग्रिम मोर्चे के स्वास्थ्यकर्मियों के लिए टीबी व कोविड से जुड़े डिजिटल निगरानी एप तैयार किए गए; छाती का स्कैन करने व गड़बड़ियों का पता लगाने के लिए कृत्रिम-बुद्धिमता, यानी एआई आधारित जांच की व्यवस्था की गई।
विभिन्न संगठनों ने अग्रिम मोर्चे के अपने कर्मचारियों के प्रशिक्षण और उन तक सूचना आदि पहुंचाने के लिए डिजिटिल मंचों का इस्तेमाल किया। इस तरह की अनेक सेवाएं शुरू की गईं, जिनमें ई-संजीवनी, स्वस्थ, प्रैक्टो, पोर्टिया, टेको, अनमोल जैसे नाम प्रमुख हैं।इसमें स्वयं सहायता समूहों और ग्राम संगठनों के रूप में समुदाय-आधारित संस्थाओं की भागीदारी ने समाज में हाशिये के लोगों की सेवा करने की क्षमता बढ़ाने का अभूतपूर्व काम किया।
वैसे भारत में कई नवाचार शुरू तो हुए, लेकिन उनके दायरे और प्रभाव का शायद ही मूल्यांकन किया गया। देखा जाए, तो देश में सफल नवाचारों के विस्तार और प्रसार की पर्याप्त क्षमता है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि सरकार इनकी क्षमता को नहीं समझ रही। टेलीमेडिसिन के लिए दिशा-निर्देश जारी करना और राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत दरअसल, डिजिटल प्लेटफॉर्म से अधिक से अधिक लाभ लेने का आधार ही तो है।
सर्व ज्ञात तथ्य है ग्रामीण भारत में इंटरनेट की सीमा, इंटरनेट के इस्तेमाल में लैंगिक असमानता व डाटा साझा करने संबंधी मानदंडों की चिंताएं डिजिटल मंचों के प्रभाव को सीमित करती हैं, पर स्वास्थ्य प्रौद्योगिकी मंचों पर ध्यान देकर कुछ हद तक सूचना की जरूरत, काउंसिलिंग, घर तक दवाओं की पहुंच सुनिश्चित करने जैसी मांग और आपूर्ति से जुड़ी समस्याओं का हल निकाला जा सकता है।
इसी तरह, मजबूत नीतियां बनाकर स्वयं सहायता समूहों की सात करोड़ महिला सदस्यों को स्वास्थ्य सेवा में संस्थागत भूमिका निभाने के लिए सक्षम बनाया जा सकता है। जरूरी सेवाओं की मांग और स्वास्थ्य सेवाओं की जवाबदेही तय करने जैसे कामों में उनकी मदद ली जा सकती है। दुष्काल के समय तमाम तरह के नवाचार हुए। कुछ का इस्तेमाल छोटी-छोटी जगहों पर भी हुआ, कुछ का उपयोग निजी संगठनों ने किया और बाकी सरकार ने। पर ज्यादातर के प्रभावों का मूल्यांकन नहीं किया गया है। इनके लिए नीतियां बनाने की दरकार है, खासतौर से उनके प्रभाव का आकलन करने के लिए। नवाचारों के भौगोलिक दायरों को पहचानने के लिए, वर्तमान सेवाओं के साथ उनकी सहभागिता परखने के लिए और निजी नवाचारियों के साथ सार्थक साझेदारी विकसित करने के लिए भी असर का आकलन करना चाहिए।
नवाचारों के लिए कम से कम तीन पहलुओं पर हमें विशेष ध्यान देना होगा। एक, नवाचार के प्रभाव का आकलन दूसरा, नीतिगत वातावरण का निर्माण | तीसरा अनुदान व कर्ज के लिए ऐसा तंत्र बनाना, जो निवेशकों को स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरतें पूरी करने में सक्षम बनाए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।