हम देश की आज़ादी की ७५ वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं | सरकार ने साल भर के कार्यक्रमों की योजना बनाई है , पर देश की जो मूलभूत आवश्यकता है उस पर कोई काम नहीं हो रहा है | वह है सारे देश की बात देश की सहज भाषा में | सच में देश के प्रान्त भाषा के आधार पर बंटे उसके बाद किसी ने कभी देश की भाषा को सहज और सर्वमान्य बनाने की कोशिश नहीं की |
अन्य क्षेत्रों की बात अपनी जगह है | आज न्याय देने वाले न्यायालय तक सहज और बोधगम्य भाषा का इस्तेमाल नहीं करते | वस्तुत: न्यायालय की भाषा तो अत्यंत सहज होना चाहिए | इसके विपरीत आमतौर पर कानून की भाषा जटिल, घुमावदार और मुश्किल होती है और इसके वाक्य लंबे-लंबे होते हैं जो सहजता से आम जनता की समझ में नहीं आते । कानूनी भाषा को सरल और आसानी से समझ में आने वाला बनाने के लिए लंबे समय से सुझाव दिये जाते रहे हैं,लेकिन अभी तक स्थिति में बदलाव नहीं आया है। अभी तक तो कानूनों और तमाम विधिक अधिसूचनाओं में प्रयुक्त भाषा की जटिलता पर ही चर्चा होती रही है लेकिन हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने भी एक फैसले में इस स्थिति पर चिंता व्यक्त की।
न्यायमूर्ति डॉ. धनंजय वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम.आर. शाह की पीठ ने हि.प्र. उच्च न्यायालय के एक फैसले को पढ़ने में खासा समय लगाने के बाद टिप्पणी की कि इसे जिस तरह से लिखा गया है, उसमें समझने योग्य कुछ नहीं है।इस फैसले के बारे में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आया। फैसले में लंबे-लंबे वाक्य थे। उन्होंने तो व्यंग्यात्मक लहजे में टिप्पणी कि इसे पढ़ने के बाद उन्हें टाइगर बाम का इस्तेमाल करना पड़ा। जब विद्वान् न्यायमूर्तियों की यह स्थिति है तो आम आदमी की मुश्किल का अंदाज लगाइये|
इस मामले में उच्च न्यायालय द्वारा प्रयुक्त भाषा और वाक्य विन्यास पर न्यायाधीशों ने नाराजगी व्यक्त की और कहा कि फैसला ऐसा होना चाहिए जो पढ़कर समझ में आये। न्यायाधीशों की इन तल्ख टिप्पणियों से ही स्थिति को समझा जा सकता है। अक्सर न्यायिक भाषा आम जनता की समझ में नहीं आती है। स्थिति की गंभीरता का इस तथ्य से भी अनुमान लगाया जा सकता है कि न्यायालय में ‘सरल’ अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में कानूनों की हैंडबुक्स जारी करने और सरकारी नियमों के मसौदों में समझ में आने वाली आसान भाषा के इस्तेमाल के लिये भी एक जनहित याचिका दायर की गयी थी।
प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस याचिका पर शीर्ष अदालत ने 15 अक्तूबर, 2020 को कानून मंत्रालय और बार काउंसिल ऑफ इंडिया से जवाब मांगा था। यह मसला अभी न्यायालय में लंबित है।
इस याचिका में तमाम कानूनों, इससे संबंधित नियमों और अधिसूचनाओं तथा अध्यादेशों में प्रयुक्त भाषा की जटिलता की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षण के साथ ही सहज सवाल उठता है कि आखिर हमारा संविधान, कानून और विधि व्यवस्था किसके लिये है? ये देश के नागरिकों के लिये हैं या फिर वकीलों के लिये या न्यायाधीशों के लिये? याचिका में यह भी तर्क दिया गया कि अगर संविधान, कानून, नियम और अधिसूचनायें देश के नागरिकों के लिये हैं तो इनकी भाषा, बोधगम्य और सहज सरल होनी चाहिए जिससे जनता इसे आसानी से समझ सके।
अक्सर अदालतों में मुकदमे की सुनवाई हो चुकी होती है लेकिन अदालत में मौजूद वादी- प्रतिवादी समझ ही नहीं पाता कि आखिर उसके मामले में क्या हुआ है। इसका नतीजा यह होता है कि सुनवाई खत्म होने के बाद वह वकील, मुंशी या फिर अदालत के कर्मचारी के पास जाकर वस्तुस्थिति जानने का प्रयास करता है। अक्सर यह देखने में आया है कि हम जो बात दो शब्दों में खत्म कर सकते हैं, उसे कहने के लिये अस्पष्ट और जटिलतापूर्ण शब्दों का पूरा मायाजाल इस्तेमाल किया जाता है। इससे अदालत का भी समय खर्च होता है।
न्यायालय आम जनता के हितों वाले कानूनों की पुस्तिका सरल अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध करने का निर्देश केन्द्र सरकार के कानून मंत्रालय को दे ताकि आम नागरिक अपने अधिकारों और शिकायतों के समाधान से संबंधित कानूनों और प्रक्रिया को सहजता से समझ सकें। चूंकि, कानूनी शिक्षा में बार काउंसिल ऑफ इंडिया की भी अहम भूमिका होती है, इसलिए याचिका में कानून की शिक्षा में सरल कानूनी लेखन अनिवार्य विषय के रूप में शुरू करने का भी आग्रह किया है।
इसी तरह अस्पतालों में प्रयुक्त शब्दावली, देश के सभी पुलिस थानों में दर्ज होने वाली प्राथमिकी की भाषा को आम नागरिक ठीक तरीके से समझ नहीं पाता है। इसकी वजह बहुत गडबडी होती है | ख़ास तौर पर प्राथमिकी में प्रयुक्त शब्दों में उर्दू और फारसी के शब्दों की भरमार है जबकि आज देश में फारसी समझने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। प्राथमिकी में प्रयुक्त कानूनी भाषा का मामला भी उच्च न्यायालय पहुंचा तो पता चला शिकायतें दर्ज करने में करीब ३८३ उर्दू और फारसी के शब्दों का इस्तेमाल होता है। अदालत ने कई बार पुलिस को निर्देश दिया कि प्राथमिकी दर्ज करते समय सरल भाषा का इस्तेमाल हो ताकि शिकायतकर्ता और दूसरा पक्ष इसे सहजता से समझ सके।
नि:संदेह अगर देश को मजबूत बनाना है तो देश में लोक व्यवहार की भाषा को सरल बनाना है तो प्रत्येक विषय की किताबों में इस्तेमाल होने वाली भाषा के लेखन कार्य में सरल भाषा का इस्तेमाल सुनिश्चित करना होगा। उम्मीद है कि इस कथित “अमृत महोत्सव “ की वेला में सरकार और देश के प्रबुध्द जन इस दिशा में ठोस प्रयास करेंगे |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।