भारत सरकार के सुर में कुछ अंतर्राष्ट्रीय सन्गठन सुर मिलाकर भारत की एक ख़ूबसूरत आर्थिक तस्वीर बना रहे हैं | लेकिन, हकीकत कुछ अलग है |उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पिछले तीन महीनों में सबसे ऊपर आ गया है, तो थोक महंगाई का आंकड़ा २७ महीने की नई ऊंचाई पर है। अभी ये दोनों ही आंकड़ों को भारत का रिजर्व बैंक चिंता का कारण नहीं मान रहा हैं, रिजर्व बैंक का मानना है कि खतरे का निशान पार नहीं किया है। रिजर्व बैंक कुछ भी कहे लेकिन शीघ्र ही ऐसा हो सकता है, क्योंकि तेल का दाम बढ़ता जा रहा है। न सिर्फ कच्चा तेल, बल्कि खाने का तेल और विदेश से आने वाली दालें भी महंगी हो रही हैं। देश कष्ट में है, सरकार बांसुरी बजा रही है और विदेशी गवैये संगत कर रहे हैं |
सरकार के तर्क के पीछे भी कुछ तथ्य बताये जा रहे हैं | जैसे आयकर और प्रत्यक्ष कर की वसूली, फरवरी में लगातार तीसरे महीने जीएसटी की वसूली भी १.१० लाख करोड़ रुपये से ऊपर रही। सरकार को सोचना चाहिए देश के नागरिक इतनी ईमानदारी से करों का भुगतान करते है तो उनसे पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत से ज्यादा ज्यादा क्र नहीं वसूले | एक के बाद एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी भारत की जीडीपी ग्रोथ का अनुमान बढ़ा रही है, उनका आधार भारत सरकार द्वारा उपलब्ध कराए आंकड़े हैं, जमीनी हकीकत का नतो उन्होंने सर्वे किया और विश्लेष्ण |
ये दोनों चित्र इस हालात के हैं | जब देश की आबादी का एक हिस्सा लॉकडाउन के असर से निकलने की कोशिश में है। हकीकत में बहुत बड़ी आबादी के लिए यह कोशिश कामयाब होती नहीं दिख रही है। सरकार के आंकड़ों में विरोधाभास है अगस्त में पीएफ दफ्तर के आंकडे़ दिखाए थे और कहा था कि ६.५५ लाख नए लोगों को रोजगार मिला है। इसके विपरीत श्रम मंत्री ने संसद में बताया कि गए साल अप्रैल से दिसंबर के बीच ७१ लाख से ज्यादा पीएफ खाते बंद हुए हैं। यही नहीं, १.२५ करोड़ से ज्यादा लोगों ने इसी दौरान अपने पीएफ खाते से आंशिक रकम निकाली। रोजगार का हाल जानने के लिए कोई पक्का तरीका है नहीं, इसीलिए सरकार ने अब इस काम के लिए पांच तरह के सर्वे करने का फैसला किया है। इस तरह के सर्वेक्षण की जरूरत शायद नहीं पड़ती, अगर कोरोना का संकट न आया होता और पूरे भारत में लॉकडाउन का एलान न हुआ होता। दुनिया की सबसे बड़ी तालाबंदी करते वक्त अगर सरकार को अंदाजा होता कि इसका क्या असर होने जा रहा है, तो शायद वे कुछ और फैसला करती, वो फैसला पलटा नहीं जा सकता। जो होना था, हो चुका है।
देश की सारी आर्थिक गतिविधियों पर लॉकडाउन में अचानक ब्रेक लग गया, जिससे अगली तिमाही में अर्थव्यवस्था में करीब २४ प्रतिशत की गिरावट और उसके बाद की तिमाही में फिर ७.५ की गिरावट के साथ भारत बहुत लंबे समय के बाद मंदी की चपेट में आ गया। अच्छी बात यह रही कि साल की तीसरी तिमाही में ही गिरावट थम गई, और तब से जश्न का माहौल बनाने का राग गाया जा रहा है, जिस पर विदेशी गवैये ताल दे रहे हैं | आंकड़ों का आइना डरा रहा है |
फिर याद आने लगी हैं वे डरावनी खबरें, जो लॉकडाउन की शुरुआत में आ रही थीं। लाखों लोग बडे़ शहरों को छोड़कर निकल पड़े थे। सरकारों के रोकने के बावजूद, पुलिस के डंडों से बेखौफ, सरकार की ट्रेनें और बसें बंद होने से भी बेफिक्र। याद कीजिये सिर्फ अप्रैल महीने में भारत में १२ करोड़ लोगों की नौकरी चली गई थी। तब सीएमआईई के एमडी ने कहा कि यह लंबे दौर के लिए खतरनाक संकेत है। आज बैंकों ने रिजर्व बैंक को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि वर्किंग कैपिटल के लिए कर्ज पर ब्याज चुकाने से मार्च के अंत तक जो छूट दी गई थी, उसका समय बढ़ा दिया जाए। बैंकों को डर है कि उनके ग्राहक अभी कर्ज चुकाने की हालत में नहीं आए हैं और दबाव डाला गया, तो कर्ज एनपीए हो सकते हैं।
भारत सरकार के खुद के आंकडे़ दिखा रहे हैं कि रिटेल, यानी छोटे लोन के कारोबार में निजी बैंक सबसे ज्यादा दबाव महसूस कर रहे हैं। इन्होंने इस श्रेणी में जितने कर्ज बांट रखे हैं, उनमें किस्त न भरने वाले ग्राहकों का आंकड़ा ५० प्रतिशत से ३०० प्रतिशत हो गया है| । उच्च शिक्षा के लिए दिए गए कर्जों की तस्वीर भी डरा रही है । सरकारी बैंकों ने ३१ दिसंबर को १० प्रतिशत से ज्यादा ऐसे कर्जों को एनपीए, कर्ज मान लिया है। इस साल होम लोन, कार लोन या रिटेल लोन के मुकाबले सबसे खराब हाल एजुकेशन लोन का ही है।
आज जिस अंदाज में देश के अलग-अलग हिस्सों में कोरोना के नए मामले आ रहे हैं, उससे आशंका यह खड़ी हो रही है कि किसी तरह पटरी पर लौटती आर्थिक गतिविधि को कहीं एक और बड़ा झटका तो नहीं लग जाएगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।