भाजपा कांग्रेस के खिलाफ है या कांग्रेस भाजपा के खिलाफ हो जैसी बातें प्रजातंत्र की निशानी है | देश में इसके साथ अब एक नई बात उभर रही है | कांग्रेस के खिलाफ कांग्रेस और भाजपा के भीतर-भीतर भाजपा के खिलाफ भाजपा | जैसे आज भाजपा अपने को विश्व की सबसे बड़ी पार्टी कहती है वैसे ही कभी कांग्रेस अपने को देश की सबसे बड़ी पार्टी कहती थी | आज उस का आकार निरंतर घट रहा है, परन्तु कुछ लोग इस साफ़ दिखनेवाली इबारत को नहीं पढ़ पा रहे हैं |
बीते शनिवार को असंतुष्ट कांग्रेसी दिग्गजों के तीखे बयानों की तेजाबी तपिश ने दिल्ली के राजनीतिक गलियारों को गर्म कर दिया । तर्क वही थे कि कांग्रेस कमजोर हो रही है, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र जरूरी है और हम से ही कांग्रेस मजबूत होगी। हालांकि, सीधे-तौर पर ये राहुल-सोनिया पर वार नहीं थे, लेकिन कांग्रेस द्वारा बनाये संगठन गांधी ग्लोबल फैमिली के शांति सम्मेलन के स्वर कांग्रेस पार्टी को अशांत करने वाले थे।
कांग्रेसी दिग्गज गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में उनके गृह राज्य में हुए सम्मेलन की पृष्ठभूमि में राज्यसभा से सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें फिर से मौका न दिये जाने की कसक महसूस हुई। नेताओं का कहना था कि उनके अनुभव का लाभ पार्टी उठाए। कहा गया कि लगातार कमजोर हो रही पार्टी को मजबूत बनाये जाने की जरूरत है। चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में विधानसभा चुनावों की घोषणा के ठीक बाद इस तरह की कवायद क्या पार्टी को चपत नहीं लगायेगी? यही वजह है कि इस कार्यक्रम के बाद पार्टी की ओर से कहा गया कि कांग्रेस कमजोर होने जैसी बात अनुचित है और इन अनुभवी नेताओं को विधानसभा चुनाव अभियान में सहयोग करना चाहिए। वहीं राजनीतिक पंडित इसे पार्टी के खिलाफ लड़ाई का शखंनाद मान रहे हैं। कहा जा रहा है कि अन्य राज्यों में ऐसे ही कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे। मुहिम को तेज करने के संकेत हैं।
वैसे इन दिग्गज कांग्रेसियों की मुहिम को लेकर भी सवाल उठाये जा रहे हैं। सवाल है कि क्या कांग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का संकट अभी पैदा हुआ या यह दशकों से जारी अनवरत प्रक्रिया रही है? जिस वंशवाद के खिलाफ ये नेता मुखर हैं क्या उसे सींचने में इनका योगदान नहीं रहा है? पार्टी में महत्वपूर्ण पदों, मंत्रालयों व राज्यों में बड़े पदों पर रहे इन नेताओं ने वंशवाद और आंतरिक लोकतंत्र का मुद्दा तब क्यों नहीं उठाया? पार्टी ने भी एक दिग्गज नेता के सात बार सांसद रहने की बात कही। जहां तक पार्टी के कमजोर होने का सवाल है तो मोदी उदय के बाद से ही ग्राफ गिरने लगा था, यह कोई तात्कालिक घटना भी नहीं है।
देश के राजनीतिक पंडित कयास लगा रहे हैं कि इस मुखर विरोध के गहरे निहितार्थ भी हो सकते हैं। गुलाम नबी आजादी की विदाई के वक्त उनके सम्मान में संसद में कसीदे पढ़े गये थे। अश्रुओं का आदान-प्रदान भी हुआ। इन कांग्रेसी नेताओं की भगवा पगड़ियों ने भी लोगों का ध्यान खींचा। फिर गुलाम नबी आजाद ने भी प्रधानमंत्री की तरीफ की है कि वे जैसे हैं वैसा दिखते हैं और कुछ छिपाते नहीं हैं। वहीं कहा कि वे राज्यसभा से सेवानिवृत्त हुए हैं, राजनीति से नहीं। वैसे भी विरोध की यह चिंगारी गुलाम नबी आजाद को राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होने पर दोबारा मौका न दिये जाने के बाद ही भड़की है, जिसे ये नेता असंतुष्टों के खिलाफ पार्टी की कार्रवाई के रूप में देख रहे हैं।
अगर भाजपा की बात करें तो ऐसा ही निर्वात वहां भी बन रहा है | पार्टी कुछ नामों तक सिमट गई है, देश के इन दो बड़े दलों को जनहित और प्रजातंत्र के हित में अपनी आंतरिक अधोसंरचना पर विचार करना चाहिए |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।