इन कुछ कामों में देरी अक्षम्य हो - Pratidin

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हमारे देश का भाग्य ही कुछ ऐसा है, जो काम आज़ादी के तुरंत बाद होना थे, वे लम्बित होते रहे औरआज तक लटके हुए है | जैसे आज तक भारत देश की राष्ट्रभाषा का विषय है | राष्ट्रभाषा के प्रश्न की जद में मातृभाषा और उसके गोरव का प्रश्न है | भोपाल में २१ फरवरी को हुए एक ऐसे ही आयोजन का निमन्त्रण पत्र मुझे ७ मार्च को डाक से मिला | यही निमन्त्रण मातृभाषा से राष्ट्रभाषा की चिन्तन यात्रा का सरोकार बन गया।

महात्मा गांधी का मानना था कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए तथा उसका उद्देश्य छात्रों में मानवीय गुणों के विकास के साथ उन्हें रोजगार के लिए तैयार करना होना चाहिए| स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इन आदर्शों को पूरा करने के प्रयास तो लगातार हुए, पर आशा के अनुरूप परिणाम प्राप्त नहीं हो सके| अब इस संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह वक्तव्य महत्वपूर्ण है कि हमारी शिक्षा प्रणाली को भाषा-संबंधी बाधाओं को दूर कर प्रतिभाओं को निखारने का प्रयत्न करना चाहिए|

अगर ग्रामीण क्षेत्र के छात्र-छात्राओं को भारतीय भाषाओं में अध्ययन सामग्री उपलब्ध कराये जाएं, तो उनकी मेधा का समुचित विस्तार हो सकता है | आज शहरों में भी बड़ी संख्या में ऐसे विद्यार्थी हैं, जिन्हें अंग्रेजी माध्यम में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है| नयी शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं में विद्यालयी शिक्षा की अनिवार्यता निर्धारित की गयी है| विचार के स्तर पर तो अब सहमत होते हैं, पर क्रियान्वयन के स्तर अडचनें न जाने कहाँ-कहाँ से आ जाती है |

जैसा प्रधानमंत्री मोदी ने अब रेखांकित किया है, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, तकनीक व प्रबंधन समेत विशेषज्ञता के हर क्षेत्र में भारतीय भाषाओं में पाठ्य-पुस्तकों की तैयारी को प्राथमिकता देनी होगी| अक्सर देखा जाता है कि गरीब और निम्न आय वर्ग तथा गांवों के जिन छात्र-छात्राओं को उचित मार्गदर्शन और अध्यापन मिलता है, तो वे शानदार परिणाम तो देते हैं,पर उनका श्रम बचाया जा सकता है |विशेषज्ञता के विषयों में भारतीय भाषाओं की अनुपस्थिति के कारण बड़ी संख्या में प्रतिभाओं से देश वंचित रह जाता है| इसका नकारात्मक प्रभाव राष्ट्रीय विकास पर भी पड़ता है. जापान, दक्षिण कोरिया, चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस जैसे कई देशों की विकास यात्रा का बड़ा आधार उनकी भाषाएं ही रही हैं|

आत्मनिर्भर भारत के लिए युवाओं में आत्मविश्वास का होना आवश्यक है और यह तभी हो सकता है, जब युवाओं को अपने ज्ञान एवं कौशल पर पूरा भरोसा हो. नयी शिक्षा नीति का यही ध्येय है तथा इसे प्राथमिक शिक्षा से लेकर शोध के स्तर पर अविलंब लागू करने की दिशा में हमें अग्रसर होना चाहिए| चाहे भाषा को लेकर पहल करनी हो या फिर पाठ्यक्रम को विकसित करना हो, संसाधनों की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती रही है|

यह एक बड़ी उपलब्धि है कि वैश्विक नवोन्मेष सूचकांक में भारत शीर्षस्थ ५० देशों में शामिल है और उसकी स्थिति में लगातार बेहतरी हो रही है, परंतु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों की अंतरराष्ट्रीय सूचियों में कुछ ही भारतीयों की उपस्थितियां हैं. इसमें सुधार के लिए प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही प्रयत्नशील होकर ग्रामीण भारत की शिक्षा व्यवस्था पर समुचित ध्यान देना चाहिए. इस प्रयास में केंद्र के साथ राज्य सरकारों को भी बढ़-चढ़कर योगदान करना चाहिए|
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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