साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 24, 25 एवं 26 प्राधिकारवान व्यक्ति, पुलिस अधिकारी द्वारा द्वारा ली गई स्वीकृति को अमान्य कर सकती है यह धाराएं बताती है कि आरोपी की स्वीकृति मात्र से उसे दोषसिद्ध नहीं कर दिया जाता जब तक अपराध के और भी ठोस सबूत न मिल सके। कोई भी व्यक्ति जिस पर किसी अपराध का आरोप लगाया गया है मार के डर से बेगुनाह भी गुनाह कबूल कर लेता है।
इसलिए पुलिस अन्वेषण अधिकारी का कर्तव्य है कि वह आरोपी की स्वीकृति लेने से पहले अपराध के और भी ठोस सबूत की छानबीन करे। यह बात उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री गोस्वामी जी ने कही है। कल के लेख में हमने धारा 25 के बारे में बताया था की पुलिस द्वारा आरोपी की स्वीकृति मजिस्ट्रेट को देना न्यायालय का कोई ठोस सबूत नहीं होता है, आज की धारा 26 पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में ली गई स्वीकृति को कब अमान्य कर देती है यह बताती है जानिए।
साक्ष्य अधिनियम,1872 की धारा 26 की परिभाषा:-
अगर कोई व्यक्ति द्वारा आरोप की स्वीकृति पुलिस अभिरक्षा में आरोपी व्यक्ति द्वारा कर ली गई हो वह तब तक मान्य नहीं होगी जब तक आरोपी व्यक्ति उस आरोप को मजिस्ट्रेट के समक्ष साक्षात उपस्थित होकर स्वीकार नहीं करता है। क्योंकि पुलिस की अभिरक्षा (हिरासत) में पुलिस अधिकारी डरा धमका कर एवं मारपीट या अन्य प्रकार से निर्दोष व्यक्ति की भी स्वीकृति ले लेते हैं लेकिन न्यायिक अभिरक्षा (हिरासत) में ली गई स्वीकृति पूरी तरह वैध होगी चाहे उस समय ऐसे आरोपी के पहरा के लिए पुलिस लगाई गई हो।
उधारानुसार:- एक मामले में 24 वार्षिक एक नर्स जो अच्छी चरित्र की थी, उस यह आरोप लगाया गया था कि उसके पास चरस थीं एवं वह अपने स्थान पर लोगों को चरस पीने का अवसर देती थी। पुलिस द्वारा महिला को पकड़ कर एक कोठरी में डाल दिया गया कोठरी बहुत ज्यादा ठंडी थी और शाम तक उस महिला को वहाँ रखा गया। कोठरी में महिला बिल्कुल अकेली पड़ी रही। एवं महिला को यह भी नहीं बताया गया कि समय क्या हो रहा है एवं शाम को सवा सात बजे तक उसे कुछ भी खाने को नहीं दिया गया एवं उस समय भी केवल एक कप चाय एक सिपाही लेकर आया था। इतने समय में उससे दो बार सख्ती से पूछताछ की गई जिसमें पुलिस तथा उत्पादन शुक्ल अधिकारी सम्मिलित थे। महिला ने जो उत्तर दिये उन्हें स्वीकृति के रूप में न्यायालय के सामने लाया गया।
''न्यायालय ने उन साक्ष्य को अस्वीकार कर दिया। पुलिस ने उस महिला के साथ कोई ज्यादती तो नहीं कि थी लेकिन महिला को जिन परस्थितियों में रखा गया था उसके कारण उसकी स्वतंत्रता इस सीमा तक नष्ट हो गयी थी कि जो भी बात उसने बतायी वह एक ज्यादती का नतीजा था एवं मजिस्ट्रेट द्वारा बनाए गए नियम के अनुसार उसे एक निश्चित समय पर नाश्ता दिया जाना था उस नियम को भी पुलिस द्वारा भंग कर दिया गया। :- लेखक बी. आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665 | (Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article)
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