बैंकों के बारे में तो हम सभी जानते हैं। यदि सचमुच कहीं खजाना होता है, तो बैंकों में होता है। बैंकों के पास इतना धन होता है कि करोड़ों रुपए का लोन डूब जाने के बाद भी बैंक का दिवाला नहीं निकलता। नागरिकों को आत्मनिर्भर बनने के लिए, अपना घर और दुकान बनाने के लिए बैंक लोन देता है लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि फिर बैंक खुद किराए के भवन में क्यों रहता है। क्या अपना मकान बनाने की तुलना में किराए के मकान में रहना फायदे की बात है।
क्या बैंक खुद को अस्थाई मानते हैं, इसलिए प्रॉपर्टी नहीं बनाते
भारत में प्रॉपर्टी होना सम्मान की बात है। इससे किसी भी कारोबार अथवा व्यक्ति की प्रतिष्ठा बढ़ती है। लोग उस पर विश्वास करते हैं। बैंक भी प्रॉपर्टी के आधार पर लोन देते हैं। वहीं दूसरी तरफ बाजार पर नजर डालें तो केवल दो प्रकार के कारोबारी किराए के भवन में अपना कारोबार संचालित करते हुए मिलते हैं। नंबर.1- जिनके पास अपना भवन खरीदने लायक पैसा नहीं होता। नंबर.2- जो खुद को अस्थाई मानते हैं। सवाल यह है कि क्या सन 1802 से लगातार संचालित हो रहा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जिसके लॉकर में आधे भारतीयों की जमा पूंजी रखी हुई है, खुद को अस्थाई मानता है।
प्रारंभिक रिसर्च के दौरान ऐसा कोई लॉजिक सामने नहीं आया जो बैंक को किराए के भवन में संचालित किए जाने की नीति का समर्थन करता हो। सिर्फ इतना पता चला है कि एक पुरानी परंपरा है, जिसका पालन लगातार किया जा रहा है। शायद किराए के भवन में बैंक को संचालित करने पर बैंक के प्रबंधकों को कोई लाभ होता होगा, परंतु किसी दस्तावेज में किस प्रकार के लाभ का विवरण लिखा हुआ नहीं मिला।
भारतीय स्टेट बैंक के पूर्व असिस्टेंट मैनेजर शिव मिश्रा का मानना है कि या पॉलिसी की कमी के कारण है। प्रॉपर्टी के मामले में बैंकों को अपनी पॉलिसी बदलना चाहिए। जिस देश में आंगनवाड़ी और ग्राम पंचायत के लिए भी भवन होता है, उसी देश में बैंक के लिए भवन नहीं होता जबकि प्रॉपर्टी ही तो गारंटी होती है। भारत बदल रहा है, शायद अपना यह सवाल भविष्य में बैंकों के संचालकों को अपनी प्रॉपर्टी बनाने के लिए प्रेरित करे। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article
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