"खेल बड़े उत्साह से जारी था। धावे के लोग जब गेंद को लेकर तेजी से उड़ते तो ऐसा जान पड़ता था कि कोई लहर बढ़ती चली आती है। लेकिन दूसरी ओर से खिलाड़ी इस बढ़ती हुई लहर को इस तरह रोक लेते थे कि मानों लोहे की दीवार हो।"
उपरोक्त पंक्तियां स्व.श्री मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी "परीक्षा" की हैं। उक्त पंक्तियों से प्रतीत हो रहा था जैसे आज के मैच की झलक अनेक वर्षों पहले ही मुंशी जी ने लिखा दी थी। आखिरकार 41 वर्ष बाद भारत को ओलंपिक में हॉकी का पदक मिला ही गया। इतना समय यदि किसी ऐसे खेल में पदक जीतने में लग जाये जिसके हम "बादशाह" हुआ करते थे तो खेल संघ को इस बारे में सोचना जरुर चाहिए।
"मैं कभी भी अपने बच्चों को हॉकी नहीं खिलाऊंगा" ये शब्द भारत के महान हॉकी खिलाड़ी धनराज पिल्लै के मुंह से तब निकले थे जब उनकी टीम को एयरपोर्ट पर हॉकी संघ का कोई भी पदाधिकारी रिसीव करने तक नहीं आया था।
भारतीय हॉकी की दुर्दशा के लिए ना केवल भारत सरकार के पूर्व के खेल मंत्री जिम्मेदार रहे हैं बल्कि उनके ऐसे पदाधिकारी भी जिम्मेदार रहे हैं जो बिना हॉकी के ज्ञान के पद को सुशोभित कर रहे थे। हालांकि अभी हालात में परिवर्तन आया है। पूर्व केंद्रीय खेल मंत्री श्री किरण रिजीजू ने जिस तरह ओलंपिक में मेडल को लेकर लक्ष्य निर्धारित किया था वह काबिले-तारीफ है। "टॉप्स" से खिलाड़ियों में भविष्य को लेकर अनिश्चितता कम हुई जिससे उनका ध्यान सिर्फ खेल पर ही केंद्रित रहा।
हॉकी जैसे खेल में विदेशी कोच और उनके सामंजस्य के लिए अनेक असिस्टेंट भारतीय कोच से खिलाड़ियों को अव्वल दर्जे की कोचिंग हासिल हुई है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि खिलाड़ियों ने अपना पूरा दम अपने खेल को संवारने में लगा दिया। राजनीतिक व्यक्तियों की दखलअंदाजी कम हुई है जिसका असर इस ओलंपिक में दिखा है।
भारत सरकार को भविष्य में ओलंपिक जैसे प्रतिस्पर्धा में और बेहतर करने की उम्मीद यदि करना है तो उसे खेल संघ में राजनीतिक नियुक्तियों पर बंद करनी चाहिए और उनके पदाधिकारी बनने के लिए भी एक पैमाना रखना ही चाहिए। ✒ Dr. Pravesh Singh Bhadoria