डॉ प्रवेश सिंह भदौरिया। आजादी के समय सरकारी व्यक्तियों के लिए अंग्रेजी हुकूमत का एक नियम बनाया गया था जिसमें उन्हें राजनीतिक रुप से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़ने पर पाबंदी लगा दी गयी थी। हालांकि इन नियमों में समय समय पर राज्यों ने अपने अनुसार परिवर्तन किए हैं।
अंग्रजी हुकूमत के समय सरकारी व्यक्तियों को राजनीतिक रुप से किसी भी कार्यक्रम में भाग नहीं लेने देने का उद्देश्य आजादी के आंदोलन में "सरकारी तंत्र" की हिस्सेदारी ना दिखाना हो सकता था जिससे वैश्विक रुप से यह संदेश जाये कि सरकारी व्यक्ति अभी भी हुकूमत के साथ है ना कि आंदोलनकारियों के साथ। लेकिन आजादी के बाद प्रत्येक व्यक्ति को अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार मिलना ही चाहिए। इसमें जमीन स्तर पर कार्य करने वाले पुलिस बल और सेना को अपवाद के रुप में ले सकते हैं अर्थात उनकी राजनीतिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाई जा सकती है। दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे विश्वविद्यालयों में उनके शिक्षकों को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली हुई है।
मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में भी विश्वविद्यालयों के कार्यसमिति सदस्यों की राजनीतिक नियुक्तियां ही होती हैं। इसी प्रकार सरकारी वकीलों की भी नियुक्ति दल विशेष के लोगों के लिए ही आरक्षित रहती है। अनेक कर्मचारी-अधिकारी अप्रत्यक्ष रुप से किसी एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ता के रुप में कार्य करते ही हैं। तो फिर राजनीतिक दलों के सदस्य बनने और उनके कार्यक्रमों में भाग लेने की अनुमति देने में हर्ज ही क्या है? अतः मध्यप्रदेश सरकार को अब इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए इससे ना केवल राजनीतिक शुचिता आयेगी बल्कि इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ओर एक आवश्यक कदम भी माना जाएगा।