जबलपुर। हिंदी दिवस के अवसर पर यदि जबलपुर को याद नहीं किया जाएगा तो हिंदी दिवस का कोई भी कार्यक्रम अधूरा रहेगा। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जबलपुर के लोकप्रिय कांग्रेसी नेता एवं तत्कालीन सांसद सेठ गोविंददास, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू से भिड़ गए थे। उन्होंने 1961 में सरकार द्वारा दिया गया तब विभूषण सम्मान लौटा दिया था।
सेठ गोविंददास- जिंदगी भर हिंदी के लिए लड़ते रहे
भारतेंदु हरीशचंद्र, बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन के साथ सेठ गोविंददास ही ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन हिन्दी के लिए समर्पित कर दिया था। जबलपुर के सांसद रहे साहित्यकार सेठ गोविंददास देश और हिन्दी के सुरताल में अंग्रेजी भाषा के मिश्रण के धुर विरोधी थे। क्षेत्रीय भाषाओं को अलग-अलग राज्यों की शासकीय भाषा का अधिकार देने के प्रस्ताव पर हुई चर्चा के दौरान संसद में दिया गया सेठ गोविंददास का भाषण हिन्दी के विकास में मील का पत्थर माना जाता है।
संसद में दिया गया उनका ऐतिहासिक भाषण
प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने से इंकार कर दिया था। जबलपुर के सांसद सेठ गोविंद दास ने संसद में कहा कि‘ जिस भाषा ने स्वाधीनता संग्राम में पूरे देश को एकसूत्र में पिरो दिया, उसे कमजोर नहीं माना जा सकता। हिन्दी की वर्णमाला की आधी भी नहीं है अंग्रेजी की वर्णमाला। हिन्दी का उद्गम संस्कृत से हुआ है, भारत में प्रचलित सभी भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। एक मां से उत्पन्न बच्चों में अधिक सामंजस्य होगा या अलग-अलग माताओं की संतानों में? यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के एक तिहाई से अधिक लोगों की भाषा को अपने ही देश में राजभाषा का दर्जा पाने के लिए याचना करना पड़ रहा है।”
नेहरू और अंग्रेजी के खिलाफ संसद में वोट देने वाले अकेले सांसद थे सेठ गोविंद दास
1962 में कांग्रेस ने संसद में विधेयक पेश किया था। इसमें अंग्रेजी को राजकीय भाषा बनाने और राज्यों को अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को भी दूसरी राजकीय भाषा बनाने का अधिकार दिया जाना था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से सहमति न बन पाने के बावजूद सेठ गोविंददास ने इसे अपना जनतांत्रिक अधिकार बताते हुए मत प्रकट करने की अनुमति मांगी। नेहरू को सेठ गोविंददास की जिद के आगे झुक कर उन्हें विरोध दर्ज कराने की अनुमति देनी पड़ी थी। संसद में संविधान के अनुच्छेद 343 में प्रस्तावित इस संशोधन के खिलाफ मत देने वाले वे इकलौते सांसद थे।
संविधान के प्रारूप में करा लिया था हिन्दी को शामिल
हिन्दी के प्रति समर्पित सेठ गोविंदास ने 1946 में संविधान सभा की पहली बैठक में अपनी बात मुखरता से रखी थी। 14 जुलाई, 1947 को संविधान सभा की चौथी बैठक में सेठ गोविंददास और पीडी टंडन खुलकर हिन्दी के पक्ष में आ गए। सेठ गोविंददास ने दिल्ली में 6-7 अगस्त 1949 को एक राष्ट्रभाषा सम्मेलन आयोजित किया। इसमें देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने का प्रस्ताव पास हुआ। प्रयास किए गए कि राजभाषा के सवाल पर आम सहमति बन जाए पर लिपि के सवाल पर पेंच फंस गया। कुछ लोग अरबी लिपि को और कुछ लोग रोमन लिपि को अपनाने का सुझाव दे रहे थे।
पक्ष में बन गई आम सहमति
बहुमत हिन्दी के पक्ष में था फिर भी कुछ सदस्य राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में हिन्दुस्तानी (अंग्रेजी) के पक्षधर थे। 12 सितंबर 1949 को भाषा के प्रश्न पर विचार करने के लिए संविधान सभा की बैठक में हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाए जाने के पक्ष में आम सहमति बन गई, हालांकि अंकों की लिपि और अंग्रेजी को जारी रहने के लिए कितना समय दिया जाए इस पर सहमति नहीं बन पाई।