डॉ. प्रवेश सिंह भदौरिया। मध्यप्रदेश सरकार (किसी भी पार्टी की सरकार हो) पिछले कुछ वर्षों से एक वर्ग को जबरदस्ती बिना उस वर्ग के मांग के आरक्षण नामक बैसाखी देने की कोशिश कर रही है। बैसाखी इसलिए क्योंकि इस वर्ग के लोग ना ही सामाजिक रुप से पिछड़े हैं और ना ही शैक्षणिक रुप से, जैसा कि आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों में आरक्षण देने की योग्यता है।
यह आश्चर्य का विषय ही है कि जिस वर्ग के मुख्यमंत्री को मध्यप्रदेश की जनता 2003 से लगातार देख रही है उस वर्ग को डंके की चोट पर सरकार पिछड़ा मान रही है। इसका तात्पर्य यह निकाला जाना चाहिए कि सरकारें यह मानकर चलती हैं कि समाज में सामंजस्यपूर्ण व्यवहार और भेदभाव रहित वातावरण बनाने में वो नकारा साबित हुई हैं।
वैसे वर्तमान की नयी नवेली सरकार, जिसमें अन्य नदी से भी जल मिला हुआ है, का मध्यप्रदेश के विकास में कोई खासा योगदान नहीं है इसलिए उन्हें चुनाव जीतने के 1960 के दशक के हथकंडे को अपनाना पड़ रहा है। हालांकि आरक्षण का तीर 2018 से पहले भी चलाया जा चुका है। जिसका परिणाम था कि "माई के लालों" ने तब की सरकार को बदल दिया था। इसलिए बेहतर होता कि मुख्यमंत्री साहब अपने सलाहकारों को बदलते जो उन्हें चुनाव जीतने के इस शार्टकट के बारे में बताते रहते हैं।
27 प्रतिशत आरक्षण एक वर्ग को मिलने से अनारक्षित तबका ना केवल ठगा महसूस करेगा बल्कि इससे अन्य वर्गों जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग भी आरक्षण प्रतिशत बढ़ाने की मांग कर सकते हैं।
वैसे यदि राजनीतिक दल सामाजिक और शैक्षणिक रुप से पिछड़ों को मुख्य धारा में लाना चाहती हैं तो उन्हें आरक्षण समाप्त करना चाहिए अन्यथा कोई व्यक्ति सिर्फ आरक्षण के कारण चयनित या प्रमोटिड होगा तो उससे अच्छा परर्फोमेंस देने वाले के मन में उसके प्रति द्वेष ही उत्पन्न होगा जिससे सामाजिक दूरी कभी खत्म नहीं होगी।
हालांकि राजनीतिक दलों को भी अपने पदाधिकारियों और मंत्रीमंडल में आरक्षण की पॉलिसी अपनानी चाहिए जिससे इन वर्गों को नेताओं के कथन अनुसार उचित सामाजिक स्थान प्राप्त होगा।
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