अपन सभी जानते हैं कि सेकंड वर्ल्ड वॉर में 70 देशों के 10 करोड़ से ज्यादा सैनिकों ने हिस्सा लिया था। यह 1 सितंबर 1939 - 2 सितम्बर 1945 (6 वर्ष और 1 दिन) चला और 7 करोड़ से ज्यादा सैनिक एवं आम नागरिक मारे गए लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध में एक हथियार ऐसा था जिसने सैनिकों को सबसे दर्दनाक मौत दी। यह हथियार किसी भी बड़े परमाणु बम से भी ज्यादा कष्टदायक माना गया और अंत में इसके उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
इस बंदूक से गोली नहीं आग निकलती थी, एक बार में दर्जनों सैनिक जल जाते थे
इस हथियार का नाम है फ्लेम थ्रोअर (Flamethrower)। यह एक प्रकार की बंदूक है जिसके साथ दो सिलेंडर आते हैं। सैनिक अपनी पीठ पर सिलेंडर बांध लेते थे और बंदूक लेकर दुश्मन के खेमे में घुस जाते थे। सिर्फ एक ट्रिगर दबाने पर दुश्मन का पूरा कैंप और वहां मौजूद सैनिक आग से जलते हुए दिखाई देते थे। क्योंकि फ्लेम थ्रोअर में से गोलियां या छोटे बम नहीं बल्कि आग निकलती थी। बिल्कुल वैसी ही जैसी बॉलीवुड फिल्मों में ड्रैगन के मुंह से निकलती है।
द्वितीय विश्व युद्ध में फ्लेम थ्रोअर की दहशत क्यों थी
दरअसल फ्लेम थ्रोअर के अंदर दो सिलेंडर लगे होते थे। इनमें से एक में नाइट्रोजन गैस भरी होती थी और दूसरे में पेट्रोलियम लिक्विड। ट्रिगर दबाते ही पेट्रोलियम लिक्विड, नाइट्रोजन गैस के साथ मिलकर दुश्मन को इस प्रकार जला डालते थे कि उसका अंतिम संस्कार करना भी मुश्किल हो जाता था। इसकी मदद से दुश्मन के अनाज भंडार, दुश्मन के टेंट यहां तक की खेतों में खड़ी हुई फसल भी जलाकर नष्ट कर दी जाती थी। रिहायशी इलाकों में आग लगा दी जाती थी। नाइट्रोजन गैस एवं पेट्रोलियम लिक्विड होने के कारण यह आग बहुत तेजी से भड़क जाती थी और पानी से बुझाई नहीं जा सकती थी।
युद्ध में शामिल सैनिकों को मृत्यु से डर नहीं लगता परंतु इस प्रकार की दर्दनाक मृत्यु द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल ज्यादातर देशों को पसंद नहीं आई। बाद में तय किया गया कि इस हथियार का उपयोग अब कभी भी किसी भी युद्ध में नहीं किया जाएगा। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article
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