दंड प्रक्रिया संहिता में कहीं भी संज्ञान शब्द को परिभाषित नही किया गया है लेकिन हम विभिन्न उपबंधों के आधार पर "संज्ञान" को समझ सकते हैं। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के धारा- 2 (ग) में "संगेय अपराध" को परिभाषित किया गया है -
इस अपराध के अंतर्गत पुलिस अधिकारी बिना किसी वारंट के गिरफ्तार कर सकती है और अनुसंधान प्रारम्भ कर सकता है। वहीं दूसरी ओर धारा- 2 (ठ) "असंगेय अपराध" को परिभाषित करती है जिसमें पुलिस अधिकारी बिना वारंट गिरफ्तार नही कर सकती है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 कि धारा- 190- के अनुसार कोई प्रथम वर्गीय दंडाधिकारी (मजिस्ट्रेट) और द्वितीय वर्ग के दंडाधिकारी (मजिस्ट्रेट) उपधारा (2) में उल्लेखित दशाओं के अधीन संज्ञान ले सकता है-
(क) उन तथ्यों के अधीन जिसमें ऐसा अपराध बनता हो, परिवाद पत्र प्राप्त होने पर;
(ख) पुलिस रिपोर्ट के आधार पर;
(ग) पुलिस अधिकारी से भिन्न किसी व्यक्ति से प्राप्त इत्तिला पर या स्वयं अपनी जानकारी पर कि ऐसा अपराध कारित किया गया है।
"संज्ञान" को विभिन्न मामलों के अधीन न्यायालय द्वारा परिभाषित किया गया है-
नूपुर तलवार बनाम सीबीआई, 2012
उच्चतम न्यायालय के अनुसार- "जब भी मजिस्ट्रेट किसी अपराध का संज्ञान लेता है, तो अभियुक्त के अपराध पर कोई घोषणा नहीं होती है। यह माना गया कि संज्ञान केवल मन का निर्धारण है कि आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया सबूत हैं कि वह मामले में शामिल हो सकता है, इसका आरोपी के अपराध की घोषणा से कोई लेना-देना नहीं है।"
"संज्ञान" का मतलब है कि मजिस्ट्रेट अपना "न्यायिक विवके का इस्तमाल करता है तथा वह ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है। वही दूसरी ओर दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 धारा 482 के अंतर्गत किसी भी पीड़ित व्यक्ति को स्वतंत्रता दी गयी है कि वह उच्च न्यायालय के समक्ष संज्ञान को रद्द करने हेतु आवेदन दे सकता है। ✒ लेखक Keshav Jha, Advocate, Hon'ble High Court Patna में प्रैक्टिस करते हैं। संपर्क 9473070074