प्राचीन भारत में बासी रोटी खाने की परंपरा क्यों थी, ताजी रोटी बनाने का आलस या कोई साइंटिफिक लॉजिक- GK in Hindi

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हम सभी जानते हैं कि भारतवर्ष में रसोई घर को एक ऐसी प्रयोगशाला के रूप में डेवलप किया गया था, जहां पर तैयार होने वाला भोजन मनुष्यों की बीमारी दूर नहीं करता था बल्कि उन्हें बीमार ही नहीं होने देता था। यानी कि वह लोग हमारे डॉक्टरों से ज्यादा समझदार थे। सवाल यह है कि फिर प्राचीन भारत वर्ष में बासी रोटी खाने की परंपरा क्यों थी। क्या लोग ताजी रोटी बनाने का आलस करते थे या फिर इसके पीछे कोई साइंटिफिक लॉजिक है। 

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यह तर्क दिया जा सकता है कि प्राचीन काल में मिट्टी के चूल्हे पर रोटी बनाई जाती थी। LPG गैस की तरह जब चाहे तब चूल्हा नहीं जला सकते थे। इसलिए एक बार में बहुत सारी रोटी बना लेते थे और खत्म होने तक उन्हीं रोटियों का उपयोग किया जाता है, लेकिन यहां ध्यान देना होगा कि प्राचीन काल में प्रतिदिन सुबह सूर्योदय के साथ चूल्हा जलाने की परंपरा थी जो निरंतर सूर्यास्त तक उपयोग के लिए तैयार रहता था। उसके अंदर अग्नि उपस्थित रहती थी। यहां ध्यान देना होगा कि प्राचीन काल में लोग सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते थे। और फिर ऐसे कई विकल्प उपस्थित थे जो मनुष्य की भूख मिटा सकते थे और एनर्जी का सोर्स भी होते हैं। सवाल फिर वही है कि लोग बासी रोटी क्यों खाते थे, जबकि उनके पास ऑप्शन मौजूद थे। 

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दरअसल, बासी रोटी में फफूंद लगने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसके कारण पेनिसिलियम नामक एक कवक उपस्थित हो जाता है। 1928 में अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने केवल यह पता लगाया था कि पेनिसिलिन एक ऐसा एंटीबायोटिक है जो बैक्टीरिया को खत्म कर देता है, लेकिन 5000 साल पहले भारत के ऋषियों ने बासी रोटी के रूप में पेनिसिलिन एंटीबायोटिक का डेली डोज सभी नागरिकों को शुरू कर दिया था। जो शरीर में पैदा होने वाले किसी भी बैक्टीरिया को तत्काल खत्म कर देता था। 

उन दिनों 99% बैक्टीरिया मारने वाले प्रोडक्ट तो थे नहीं, जरा सोचिए फिर लोग 120 साल तक कैसे जीवित रहते थे। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article 
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