भारतीय संविधान अधिनियम, 1950 का अनुच्छेद 50 कार्यपालिका को न्यायपालिका से अलग करता है एवं राज्य से यह अपेक्षा करता है कि राज्य लोक- सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए कदम उठाएगा। इसी प्रकार कार्यपालिका एवं विधायिका के अवैध कार्य एवं नियमों पर रोक लगाने का कार्य एवं संविधान के उल्लंघन पर दण्डित करने का काम सिर्फ न्यायपालिका का है। इसीलिए भारत की न्यायपालिका को एक स्वतंत्र न्यायपालिका मना गया है। सवाल यह है कि राज्यों के उच्च न्यायालय में न्यायाधीश, अधिकारी या अन्य कर्मचारी एक शासकीय सेवक हैं। तो क्या वह राज्य सरकार के अधीन कार्य करते हैं और राज्य सरकार का आदेश मानने के लिए बाध्य हैं। इसका जबाब सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण निर्णय में प्राप्त होता है।
भारत संघ बनाम प्रतिभा बनर्जी (भूतपूर्व न्यायाधीश कलकत्ता उच्च न्यायालय):-
उपर्युक्त मामले में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया (उच्चतम न्यायालय) ने यह अभिनिर्धारित किया कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और उसके अधिकारी सरकारी सेवक नहीं है। वे संवैधानिक पद धारण करते हैं जो कार्यपालिका के नियंत्रण से अलग है। उच्चतम न्यायालय के अधिकारी और सेवकगण तथा सरकार के बीच का संबंध स्वामी और सेवक का नहीं है, अर्थात वह सरकार के अधीन पद धारण नहीं करते हैं।
यदि सरकार एवं न्यायपालिका का संबंध स्वीकार कर लिया जाएगा तो न्यायिक स्वतंत्रता और कार्यपालिका से न्यायपालिका के पृथक्करण की सम्पूर्ण अवधारणा ही चकनाचूर हो जाएगी।
उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 50,214,217,219 एवं 221 से यह स्पष्ट हो जाता है कि उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश भी स्वंय सरकार का तीसरा अंग है जो अन्य दो अंगों कार्यपालिका एवं विधयिका से पूरी तरह स्वतंत्र है।
संविधान के अधीन एक न्यायाधीश एक विशेष पद धारण करता है ,वह अपने कर्तव्य का भय और पक्षपात किए बिना सम्पादित नही कर सकता है जब तक कि वह कार्यपालिका से पूर्णतया स्वतंत्र न हो। यदि उसे सरकारी सेवक माना जायेगा तो ऐसा सम्भव नहीं।
इस प्रकार संविधान की योजना से स्पष्ट है कि संविधान निर्माता यह सुनिश्चित करने के लिए उत्सुक थे कि न्यायपालिका, कार्यपालिका से स्वतंत्र हो। इसलिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 233 एवं 237 के अंतर्गत अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायिक अधिकारियों (जिला न्यायाधीश तक भी) की नियुक्ति की प्रक्रिया सिविल पदों के धारण करने वाले सेवको से पूर्णतया भिन्न हैं।
यद्यपि प्रारम्भिक नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है लेकिन उसके बाद उसकी तैनाती (स्थानांतरण) ,प्रोन्नति, अवकाश आदि उच्च न्यायालय के हाथ में होता है न कि सरकार के हाथ में।
अतः हम कह सकते हैं कि न्यायपालिका को विधयिका एवं कार्यपालिका से अलग एवं स्वतंत्र सशक्त बनाने का निर्णय भारतीय संविधान का एक मील का पत्थर हैं जिसके कारण व्यक्ति को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्याय मिलता है आज भी। (Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article)
:- लेखक बी.आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665
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