जब कोई व्यक्ति निजी तौर पर न्यायालय में किसी के खिलाफ प्रकरण प्रस्तुत करता है तो वह आरोप के साथ उसे प्रमाणित करने के लिए साक्ष्य भी प्रस्तुत करता है। ऐसे मामलों में न्यायालय आरोपी को तभी तलब करता है जब उसे आरोप के साथ प्रस्तुत किए गए साक्ष्य विश्वास के योग्य लगते हैं। सवाल यह है कि जब न्यायालय आरोप के साथ प्रस्तुत किए गए साक्ष्य को विश्वास के योग्य मान लेता है तो किस कानून के तहत आरोपी को प्रतिरक्षा का अवसर प्राप्त होता है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 247 की परिभाषा:-
व्यक्तिगत रूप से न्यायालय में प्रस्तुत किए गए प्रकरण में न्यायालय तभी संज्ञान लेता है जब प्रस्तुत प्रकरण में आरोप को सिद्ध करने के ठोस आधार उपलब्ध हो। इसके बाद यदि आरोपी न्यायालय में अपने खिलाफ लगाए गए आरोपों को अस्वीकार कर देता है तब मजिस्ट्रेट दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 247 के अंतर्गत आरोपी को अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर देता है। आरोपी व्यक्ति, मजिस्ट्रेट से अनुमति लेकर अपने पक्ष समर्थन में गवाहों को प्रस्तुत कर सकता है।
नोट:- सीआरपीसी की धारा 243 उसी प्रकरण में लागू होती है जहां मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा प्रस्तुत प्रकरण में विचारण कर रहा हो जबकि सीआरपीसी की धारा 247 निजी तौर पर प्रस्तुत किए गए मामलों में आरोपी को प्रतिरक्षा का अवसर प्रदान करती है एवं धारा 232 सत्र न्यायालय में विचारण के समय आरोपी को प्रतिरक्षा का बचाव देती है।
भारत में आरोपी को प्रतिरक्षा का अवसर मजिस्ट्रेट, जिला एवं सत्र न्यायालय एवं हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट तक दिया जाता है। यही भारतीय न्याय व्यवस्था की पहचान भी है। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article)
:- लेखक बी.आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665
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