पुलिस एक शासकीय संस्था है और समाज में अपराधों को रोकने के लिए काम करती है। किसी भी प्रकार का अपराध होने पर FIR पंजीबद्ध करती है और प्रॉपर इन्वेस्टिगेशन के बाद, जब उसके पास पुख्ता सबूत होते हैं, तब सजा के निर्धारण के लिए कोर्ट में चार्जशीट प्रस्तुत करती है। आइए जानते हैं कि शासन द्वारा नियुक्त पुलिस की जांच के खिलाफ किसी आरोपी को प्रतिरक्षा का अवसर किस कानून के तहत और क्यों प्राप्त होता है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 243 की परिभाषा:-
1. जब आरोपी से अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी प्रतिरक्षा के लिए साक्ष्य पेश करेगा या लिखित कथन देगा तब मजिस्ट्रेट ऐसी साक्ष्य को अभिलेख में फाइल करेगा।
2. अगर आरोपी अपनी प्रतिरक्षा होने के बाद पुनः प्रतिपरीक्षा करवाना चाहता है या कोई अन्य दस्तावेज को प्रतिरक्षा के साक्ष्य के रूप में देना चाहता है तब वह मजिस्ट्रेट से धारा 243 की उपधारा (2) के अधीन अपेक्षा कर सकता है।
मजिस्ट्रेट को अगर लगता हैं कि आरोपी को पुनः प्रतिरक्षा के लिए उचित अवसर दिया जाना चाहिए तब मजिस्ट्रेट आवेदन को मंजूर कर सकता है, अन्यथा समय बर्बादी या विचारण में देरी करवाने के लिए दिया गया आवेदन मजिस्ट्रेट स्वंय विवेक से नामंजूर कर सकता है।
कोर्ट पुलिस की जांच रिपोर्ट पर विश्वास क्यों नहीं करती
दरअसल, ऐसा सिर्फ कहा जाता है। न्यायालय विश्वास और अविश्वास की अवधारणा के बाहर निष्पक्षता एवं तटस्थता के नियम पर काम करता है। वह पुलिस और आरोपी को समान रूप से अपना पक्ष प्रमाणित करने का अवसर प्रदान करता है। दुनिया में लोकतंत्र और स्वतंत्रता की यह मूल अवधारणा है। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article)
:- लेखक बी.आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665
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