1906 में बनी The Story of the Kelly Gang विश्व की पहली फ़ीचर फ़िल्म थी। तब से अब तक अनेकों भाषाओं में अनेकों फ़िल्म बनाई जा चुकीं हैं। पर सफल फ़िल्म बनाने का कोई तय फ़ॉर्म्युला अब तक किसी को नहीं मिला है। आज कल हिंदी फ़िल्में जिस तरह से पिट रही हैं, वो फ़िल्म से जुड़े लोगों के लिए बहुत नुकसानदेह हैं। वहीं कभी अपने अतिशयोक्ति से भरपूर मार धाड़ के लिए प्रख्यात दक्षिण भारत की फ़िल्में आज हिंदी पट्टे में भी बहुत अच्छा कर रही हैं, जो एक अच्छी बात है।
ऑनलाइन स्ट्रीमिंग आने की वजह से लोगों को अब घर बैठे अच्छा चलचित्र देखने मिल रहा है। इसलिए हिंदी फ़िल्म निर्माताओं को समझना होगा कि अब सेट फ़ॉर्म्युला पर फ़िल्म नहीं चलेंगी। सेट फ़ॉर्म्युला जैसे रीमेक फ़िल्में चली तो लगातार रीमेक फ़िल्में ही बन रही थी। प्रेम कहानी से बाहर तो हिंदी सिनमा आज भी नहीं निकल पाया है। बायोपिक क्या सफल हुई, बायोपिक की बाड़ लग गई।
बॉलीवुड, हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री भारत में सबसे बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री थी। पर हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री ने अपने बड़े होने की जिम्मेदारियाँ कभी नहीं निभाई। जब आपकी फ़िल्में चल रही थी तब आपको उन्हें अन्य भारतीय भाषाओं में डब करना चाहिए था। दक्षिण भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री ने इसमें पहल की और देखिए बाहुबली, पुष्पा जैसी कितनी ही फ़िल्में हिंदी में भी सफल रही।
हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री ने धीरे धीरे अपने गाँव से जैसा रिश्ता ही तोड़ दिया। आम तौर पर हिंदी फ़िल्मों का नायक पैदाइशी आमिर होता है, विदेश घूमता है, उसके सब दीवाने होते है, एक मारता है तो दस गिर जाते हैं, उसके न तो संघर्ष की कोई कहानी होती है, न ही असल जिंदगी में वो उदार होता है, जिस आसानी से वो फ़िल्मों ने घुस जाता है बस उतनी ही आसानी से उसके साथ फ़िल्मों में चीजें हो जाती हैं। इससे आम आदमी उस नायक से जुड़ ही नहीं पता।
शाहरुख़ खान को ही ले लीजिए, इन्हें तो लोग किसी फ़िल्मी परिवार का हिस्सा नहीं मानते। पर कितने लोग जानते हैं कि इनकी माता जी लतीफ़ फ़ातिमा खान एक सामाजिक कार्यकर्ता थी जिनका उठना बैठना इंदिरा गांधी के साथ था। ऐसे में शाहरुख़ का सीधे तौर पर फ़िल्मों से जुड़ा होना मायने नहीं रखता। हाँ उन्होंने मेहनत की अपनी जगह बनाई पर फ़िल्मों में आना तो आसान हो गया ना। हममें से कितने लोग आज मोदी जी से मिल सकते है। जबकि वो एक साधारण कार्यकर्ता से प्रधानमंत्री बने, वहीं इंदिरा गांधी से सीधे मिल पाना मतलब पकड़ तो थी।
जितना आप एक कलाकार की फ़ैन फ़ालोइंग के कारण फ़िल्म बेच सकते थे वो आपने बेच ली और जो संगीत कभी आपकी फ़िल्मों की जान होता था, वो अब बस हल्ला हो कर रह गया है। आइटम नम्बर ठुसने और ये मानसिकता कि गालियाँ भर देने से युवा वर्ग खिंचा चला आएगा, इस चक्कर में आपने फ़ैमिली ऑडीयन्स भी गँवा दी। साथ ही हिंदी फ़िल्मों में भारतीय संस्कृति के सम्मान की जगह उसका मज़ाक़ बनाते दिखाया जाना आम सी बात हो गई।
आप अपने देश के लोगों को तो मूर्ख समझ ही रहे है बल्कि आप ये भी भूल रहे हैं कि भारत से बाहर जो भारतीय हमारी संस्कृति से इन फ़िल्मों के बहाने जुड़े रहते थे वो भी आपसे नाराज़ होते चले जा रहे है। ऐसे में आप अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे है।
फ़िल्में आम तौर पर अपने देश अपनी संस्कृति को अच्छे से प्रदर्शित कर विश्व पटल पर रखने का माध्यम होती है। इस कला को हॉलीवुड से सीखना चाहिए। हॉलीवुड अपने हिंसात्मक इतिहास को, अपनी अधनंगी संस्कृति को भी अच्छे से प्रदर्शित करता है। वो यक़ीन दिलाता है कि विश्व में कही भी कोई घटना हो तो अमेरिका ही रक्षा करेगा। वो विदेशों में घटी, घटनाओं पर भी फ़िल्म बनाते हैं और अपनी आमदनी बढ़ाने फ़िल्मों को कई भाषाओं में डब करके रिलीज़ करते हैं।
हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री को किसने रोका है कि आप बड़ा नहीं सोच सकते। बनाओ विश्व स्तर की फ़िल्म और करो अंग्रेज़ी और अन्य भाषाओं में डब। उसके उल्टे बॉलीवुड वाले इंग्लिश फ़िल्म बनाते हैं जिसमें एक ऐसा किरदार जो असल जीवन में मिल जाए तो कभी अंग्रेज़ी ना बोले ऐसे किरदार से भी आप अंग्रेज़ी बुलवाते हैं। जिससे दर्शक जुड़ नहीं पाता।
वहीं हॉलीवुड मल्टीवर्स पर फ़िल्म बना रहा है, जिसकी कल्पना हमारी संस्कृति और हमारे धर्म ग्रंथ ने बहुत पहले ही कर रखे है। ऐसे में हम क्यों कभी मल्टीवर्स को लेकर कोई बात नहीं कह सके। क्यूँकि हम शायद हम अपनी ही संस्कृति का मज़ाक़ उड़ाने में व्यस्त थे और पेड़, झरनों के नीचे अपने नायकों को नाचते दिखा कर ही खुश थे।
मल्टीवर्स क्या है और ये भारतीय संसृति से कैसे जुड़ा है ये अगले संस्करण में। ✒ लेखक - नितिन परिहार