ग्वालियर। इतिहासकारों ने भले ही आल्हा उदल की 52 युद्ध की कहानी इतिहास की किताब में दर्द ना की हो परंतु बुंदेलखंड और ग्वालियर चंबल का बच्चा-बच्चा आल्हा ऊदल के बारे में जानता है। उनकी वीरता के गीत आज भी सुनाए जाते हैं। जब जब आल्हा रण में आए, मचे ग़ज़ब की हाहाकार। एक बार में चार शीष को, काटे ऊदल की तलवार।
इलाके में लाखों किस्से सुनाए जाते हैं। दोनों भाइयों का युद्ध कौशल ऐसा कहा कि पृथ्वीराज सिंह चौहान की सेना में भी उनके नाम की दहशत दौड़ जाती थी। उनके युद्ध कौशल की कथाएं चंदेल और चौहानों की लड़ाई के नाम से सुनाई जाती हैं। दोनों भाई लोगों की मदद किया करते थे। कथाओं में सुनाया जाता है कि बुंदेलखंड में जब भी कोई मदद के लिए आल्हा उदल को याद करता था। दोनों भाई उसके आसपास होते थे। इसी कारण यह भी मान्यता बनी कि दोनों भाइयों को हवा में उड़ने की कला आती है।
कहा जाता है कि आल्हा उदल वायु के वेग से कहीं जा रहे थे तभी अचानक ग्वालियर के नजदीक हस्तिनापुर ग्राम के क्षेत्र में उनके हाथ से तलवार गिर गई और जमीन में धंस गई। यह तलवार इतनी बड़ी है कि एक इंसान इसे उठाने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। तलवार अभी भी जमीन में धंसी हुई है और उसका ऊपरी सिरा जमीन के ऊपर दिखाई देता है।
दूर से देखने पर यह पत्थर की आकृति लगती है परंतु जब पास में जाकर इस पर कोई लोहे की चीज टकराई जाती है तो तलवार के भीतर से भी धातु जैसी आवाज आती है। इसके कारण ग्रामीण विश्वास करते हैं कि 900 साल तक मिट्टी और बारिश के कारण इसके चारों तरफ एक कवर बन गया है। जो पत्थर जैसा प्रतीत होता है।
हजारों कथाएं होने के बावजूद सरकार ने आल्हा ऊदल की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। नतीजा ग्रामीणों ने इस आकृति के चारों तरफ तार फेंसिंग करवा कर इसे सुरक्षित कर दिया है। इतिहास में रुचि रखने वाले देश-विदेश के पर्यटक तलवार को देखने के लिए आते हैं।