भोपाल। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 के लिए अब ज्यादा समय नहीं बचा है। 47 विधानसभा सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। सामान्य श्रेणी की 31 विधानसभा सीटों पर आदिवासी मतदाता जीत हार का फैसला करते हैं। इस प्रकार कुल 78 विधानसभा सीटों पर कौन बनेगा विधायक का फैसला आदिवासी करेंगे। भाजपा और कांग्रेस दोनों आदिवासियों को लुभाने में लगे हैं परंतु इस बार आदिवासियों का एजेंडा सेट है।
मध्यप्रदेश में कई नेता अपने भाषणों में बताते हैं कि आदिवासी लोग सस्ती, कच्ची और नकली शराब के बदले भी वोट दे दिया करते थे। कुछ आदिवासियों को झूठी कसम खिलाकर वोट ले लिया जाता था तो कुछ आदिवासियों को झूठे सपने दिखा कर। कुल मिलाकर कई प्रकार की तिकड़म लगाकर आदिवासियों के वोट प्राप्त किए जाते थे और नेता चुनाव जीत जाते थे, लेकिन फिर वक्त बदल गया।
सन 2008 में मध्य प्रदेश के आदिवासियों में एक खास किस्म का परिवर्तन देखा गया था। बड़े पैमाने पर आदिवासियों की पंचायतों का आयोजन हुआ जिसमें शपथ उठाई गई कि उपहार के बदले वोट नहीं देंगे। इस अभियान का भारतीय जनता पार्टी को काफी फायदा हुआ। 2012 में आदिवासियों के बीच परिवर्तन की लहर देखी गई और कांग्रेस पार्टी का आदिवासी क्षेत्रों से लगभग सफाया हो गया।
2017 में फिर से माहौल बदला। स्कूलों में पढ़ने गए उनके बच्चे कॉलेजों में आ गए थे। उन्हें राजनीति समझ में आने लगी थी। उन्हें यह पता चल गया था कि उनको जिन योजनाओं का लाभ मिलता है वह सरकार की तरफ से संचालित होती हैं और खर्चा सरकारी खजाने पर आता है। किसी नेता की जेब से पैसा नहीं लगता। यानी किसी नेता को अन्नदाता नहीं मानना चाहिए।
पढ़े-लिखे आदिवासी लड़कों ने सड़क पर उतरना शुरू किया। सरकार को बताया कि समाज बदल गया है। बच्चों के इस प्रयास का एक असर दिखाई दिया। आदिवासी क्षेत्रों में सरकार के प्रति नाराजगी खुलकर सामने आई और इसका फायदा विपक्ष की कांग्रेस पार्टी को मिला। 2018 में मध्य प्रदेश में आदिवासियों की कृपा से कांग्रेस की कमलनाथ सरकार बनी।
इस बार शिवराज सिंह चौहान और कमलनाथ दोनों आदिवासियों को अपनी तरफ लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। शिवराज सिंह अच्छे भविष्य का सपना दिखा रहे हैं और कमलनाथ खुद को आदिवासियों का बचपन का पक्का दोस्त बता रहे हैं, लेकिन सोशल मीडिया पर आदिवासी बच्चों की एक्टिविटीज और आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की माने तो इस बार आदिवासियों का एजेंडा फिर से बदल गया है।
इस बार किसी नेता के कहने पर कोई वोट नहीं दिया जाएगा। इस बार कोई पंचायत नहीं होगी और वोट के लिए किसी चबूतरे पर कोई कसम नहीं खाई जाएगी। इस बार अपने बच्चों की बात मानी जाएगी। पार्टी और प्रत्याशी को नापने तोड़ने का काम बच्चों को दे दिया गया है, और सबसे अच्छी बात यह है कि आदिवासी युवाओं का कोई एक नेता नहीं है। सैकड़ों नेता है, जिनकी अपनी बौद्धिक योग्यता है और जो अपने तरीके से मूल्यांकन करना जानते हैं।
यानी मध्य प्रदेश की 78 विधानसभा सीटों का फैसला कॉलेज में पढ़ने वाले आदिवासी बच्चे करेंगे एवं किसी डॉक्टर-इंजीनियर को टिकट दे देने से आदिवासियों के वोट नहीं मिलेंगे।