सभी न्यायालय की अपनी एक अधिकारिता सीमा होती है। जैसे कि कार्यपालक मजिस्ट्रेट सिर्फ राज्य सरकार के अंतर्गत राजस्व मामलों एवं लोकशान्ति व्यवस्था के लिए होते हैं। इसी प्रकार सिविल न्यायालय के मजिस्ट्रेट नागरिकों के अधिकारों के लिए सुनवाई करते हैं। दाण्डिक न्यायालय दण्ड देने का कार्य करते हैं। अगर कोई भी न्यायालय अपनी अधिकारिता से अलग कार्य करता है तो उसका यह आदेश, निर्णय आदि मान्य नहीं होगा जानिए।
दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 की धारा 300 की उपधारा 04 की परिभाषा
अगर किसी व्यक्ति को किसी आरोप में अपराध के लिए ऐसे न्यायालय द्वारा दोषमुक्त या दोषसिद्ध ठहरा दिया गया है, जो उस अपराध के आरोपों के मामलों का विचारण करने के लिए समक्ष नहीं था, अर्थात वह न्यायालय उस अपराध के विचारण की अधिकारिता नहीं रखता था एवं उसने निर्णय सुना दिया है। तब उसके बाद दोषसिद्ध या दोषमुक्त व्यक्ति अपनी अधिकारिता रखने वाले न्यायालय में पुनः उसी अपराध का विचारण करवा सकता है।
साधारण शब्दों में कहें तो द्वितीय वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट या विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट को एक वर्ष तक के कारावास एवं पांच हजार रुपए तक या दोनों से दण्डित करने का अधिकार है, और वह दोषसिद्ध अपराधी पर 10000 रुपये का जुर्माना या तीन वर्ष की सजा या दोनों से दण्डित करता है या प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट की अधिकारिता वाले मामलों की सुनवाई करता है तब द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट या विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट का यह विचारण उसकी अधिकारिता से बाहर होगा। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article) :- लेखक ✍️बी.आर. अहिरवार (पत्रकार एवं विधिक सलाहकार होशंगाबाद) 9827737665
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