धोबी का कुत्ता घर का ना घाट का (dhobee ka kutta ghar ka na ghaat ka) मुहावरा अथवा लोकोक्ति का प्रमाण सहित सही अर्थ यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। इसलिए आवश्यक है क्योंकि कुछ लोगों ने भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दी है और मुहावरे को बदलने का प्रयास किया है।
धोबी का कुत्ता मुहावरे का प्रथम प्रयोग किसने किया था, हिंदी साहित्य में प्रमाण
हिंदी साहित्य के विशेषज्ञ श्री नित्यानंद मिश्रा बताते हैं कि, हिंदी साहित्य में धोबी का कुत्ता मुहावरे का सबसे प्रथम प्रयोग गोस्वामी तुलसीदास जी ने उनकी रचना कवितावली में किया था। यह रचना 16वीं शताब्दी के अंत में अथवा 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में की गई थी। कवितावली के उत्तरकांड में एक पद क्रमांक 66 है
'तुलसी' बनी है राम! रायरें बनाएँ,ना तो धोबी-कैसो कूकरु न घरको न घाटको ।।
श्रीरामजी ! यह सब आपहीके बनाये बनी है, नहीं तो धोबी के कुत्ते के समान मैं, न घरका था और न घाटका ही ॥ ६६ ॥
धोबी का कुत्ता घर का न घाट का मुहावरे का सही अर्थ
प्राचीन काल में मनुष्य जानवरों का पालन पोषण तो करते थे परंतु उन्हें बंधक बनाकर नहीं रखते थे। इस प्रकार जानवरों को भी स्वतंत्रता प्राप्त हुई कि वह अपना पालन करने वाले स्वामी का चुनाव करें और यदि पालन पोषण में गड़बड़ी हो तो जब चाहे स्वतंत्र हो जाएं अथवा दूसरे स्वामी का चुनाव करें।
गधे की दो विशेषताएं हैं। वह अत्यधिक वजन उठा सकता है और सबसे खास यह कि वह रास्ता नहीं भूलता। इसलिए धोबी के लिए उपयोगी जीव है। कुत्ते की विशेषता है कि वह कच्ची नींद का प्राणी होता है और सबसे अच्छी रखवाली कर सकता है। 16वीं शताब्दी में धोबी, धनवान नहीं होते थे। उनके पास स्वर्ण मुद्राएं एवं आभूषण भी नहीं होते थे। इसलिए रखवाली करने वाले जीव की कोई आवश्यकता नहीं थी।
ऐसी स्थिति में यदि कोई कुत्ता किसी धोबी का चुनाव अपने स्वामी के रूप में करता है तो ऐसी स्थिति में वह कुत्ता अपनी विशेषता खो देगा। उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाएगी और गधे की संगति में रहने से वह आलसी हो जाएगा। घाट पर कपड़ों का वजन नहीं उठा सकेगा और घर पर रखवाली का कोई काम नहीं होगा क्योंकि उस जमाने में कपड़ों की चोरी नहीं होती थी।
अर्थात, धोबी का कुत्ता घर का न घाट का मुहावरे का सही अर्थ यह है कि, मनुष्य का किसी ऐसे स्थान पर होना जहां उसकी कोई उपयोगिता ना हो और संगति के कारण उसकी विशेषता भी नष्ट हो जाती हो। यहां नोट करना जरूरी है कि, धोबी का कुत्ता का मतलब सर्वथा अनुपयोगी (यूजलेस) नहीं है बल्कि उपस्थिति अथवा नियुक्ति के कारण अनुपयोगी हो गया है।
धोबी का कुट्टा है या कुटका
जैसा कि ऊपर प्रमाणित किया जा चुका है कि 16वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कवितावली में इस मुहावरे का सबसे पहला प्रयोग किया है। इससे प्राचीन कोई साहित्य नहीं है जहां इस मुहावरे का प्रयोग किया गया हो। फाइनली दावे के साथ कह सकते हैं कि, धोबी का कुट्टा या कुटका कुछ नहीं होता। यह खयाली यूनिवर्सिटी के किसी प्रोफेसर के दिमाग में पका पुलाव है और निश्चित रूप से वह प्रोफ़ेसर भी धोबी का कुत्ता ही है, ना व्यवहारिक ज्ञान का हिंदी साहित्य का।
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