भारतीय संस्कृति में चातुर्मास का विशेष महत्व। शास्त्रों में इसे हरिशयन की अवधि कहा जाता है। संस्कृत में हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना। यही उनके शयन का द्योतक होता है। मनुष्य के शरीर में इस अवधि में पित्त की कमी हो जाती है। बादलों के कारण सूर्य की किरणें पृथ्वी तक नहीं पहुंच पाती है इसके चलते कई प्रकार के कीटाणु और सूक्ष्म जीव जंतु उत्पन्न हो जाते हैं। जो विभिन्न रोगों का कारण बनते हैं। यही कारण है कि चातुर्मास में विशेष प्रकार के नियमों का पालन करना होता है।
चातुर्मास में क्या नहीं खाना चाहिए
- गुड़ और शक्कर का त्याग कर देना चाहिए, अन्यथा डायबिटीज हो सकती है।
- दीर्घायु के लिए तेल में तली हुई चीजों का त्याग कर देना चाहिए।
- संतान प्राप्ति के लिए भी यथासंभव तेल का त्याग कर देना चाहिए।
- शत्रु नाश के लिए कड़वे तेल का त्याग कर देना चाहिए।
- सौभाग्य की मनोकामना है तो मीठे तेल का त्याग कर देना चाहिए।
- स्वर्ग प्राप्ति की कामना है तो पुष्प के समान खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए।
- सावन के महीने में दूध एवं भादो के महीने में दही का त्याग कर देना चाहिए।
- बैंगन, मूली एवं पटोल आदि का त्याग कर देना चाहिए।
चातुर्मास में क्या खाएं
- शरीर की शुद्धि एवं सुंदरता के लिए पंचगव्य का सेवन करें।
- वंश वृद्धि के लिए नियमित रूप से दूध का सेवन करें।
- पुण्य फल प्राप्त करने के लिए सात्विक भोजन करें एवं पंचांग के अनुसार उपवास करें।
चातुर्मास का व्रत कब से प्रारंभ कर सकते हैं
वैसे तो चातुर्मास का व्रत देवशयनी एकादशी से शुरू होता है परंतु द्वादशी, पूर्णिमा, अष्टमी और कर्क की सक्रांति से भी यह व्रत शुरू किया जा सकता है। जो मनुष्य इन चार महीनों में मंदिर में झाड़ू लगाते हैं तथा मंदिर को धोकर साफ करते हैं उन्हें सात जन्म तक ब्राह्मण योनि मिलती है।
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