लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाली प्रेस को किसी भी भ्रष्ट अधिकारियों के विरुद्ध, सरकार की मनमानी के विरुद्ध प्रकाशन करने का एवं लापरवाह अधिकारियों के विरुद्ध प्रकाशित करने का कानूनी अधिकार प्रारंभ से ही है या कही से मिला है, जानिए इसके पीछे का राज।
एक छोटी सी कहानी:-
आटोशंकर नामक व्यक्ति जो तमिलनाडु राज्य का रहने वाला था उसे ह्त्या के आरोप में चेगलेपुट उपजेल में बंद करके रखा था। उसने जेल में ही 350 पृष्टों वाली अपनी एक आत्मकथा लिखी और अपनी पत्नी के द्वारा वकील भेजा उसे प्रकाशित के लिए। उसने अपनी जीवनी में लिखा कि उसके द्वारा किए गए अपराधों में राज्य के एएसआई, आईपीएस और अन्य अधिकारियों से उसके संबंध थे एवं कई अधिकारी उसके साथ अपराध में सहभागी भी थे। इसकी पुष्टि के लिए आटोशंकर के घर पर पार्टी की एक वीडियो से भी हुई थी, लेकिन इस जीवनी को प्रकाशित करने पर तमिलनाडु सरकार ने रोक लगा दी। इसके विरोध में पत्रिका संपादक रामगोपाल ने तमिल सरकार के आदेश को निरस्त करने के लिए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगा दी।
जानिए प्रेस की स्वतंत्रता का महत्वपूर्ण निर्णय
राजगोपाल बनाम तमिलनाडु राज्य (निर्णय वर्ष 1994):- मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया कि किसी भी प्रजातांत्रिक देश मे ऐसा कोई कानून नहीं है जो सरकार को उसके अधिकारियों के बदनाम करने वाली सामग्री के प्रकाशन से पहले ही रोक लगा दे। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि प्रकाशन सामग्री अदालत के अभिलेख समेत किसी भी लोक अभिलेख पर आधारित होती हो तो उसके किसी भी पहलू के प्रकाशन का विरोध नहीं किया जा सकता है।
इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया कि सरकार, स्थानीय अधिकारी और अन्य अंग और संस्थाएं जो भी सरकारी शक्ति का उपयोग करते हैं वे मानहानि के लिए नुकसानी का वाद दायर नहीं कर सकते है।
किन्तु अगर किसी अधिकारी, व्यक्ति या महिलाओं की निजता के अधिकार का उल्लंघन किया जाता है जैसे कि एक व्यक्ति की व्यक्तिगत जानकारी के अलावा अपनी पत्नी, अपने परिवार की शादी, प्रजनन, माँ बनने और शिक्षा की गोपनीयता बजाए रखने का निजिता का अधिकार है एवं साथ ही किसी बलात्कार की शिकार महिला, योन हिंसा, अपहरण या इसी प्रकार के अन्य संगीन अपराध से पीड़ित महिलाओं का नाम प्रकाशित नही किया जा सकता है।
राजगोपाल बनाम तमिलनाडु राज्य (निर्णय वर्ष 1994)
अतः सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला पत्रिका संपादक रामगोपाल के पक्ष में सुनाते हुए कहा कि आटोशंकर की जीवनी को जैसा कि वह लोक अभिलेख से प्रतीत होती है उसे उसकी सहमति के बिना भी प्रकाशित करना प्रेस का मौलिक अधिकार है, किन्तु अगर प्रकाशनकर्ता उसकी निजिता की जानकारी प्राकशित करते हैं तो यह एकान्तता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा इस पर रोक लगाई जा सकती है।
नोट:- इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रेस की स्वतंत्रता के लिए एक और महत्वपूर्ण अधिकार दिया है। अगर कोई बात किसी सरकारी अधिकारियों द्वारा उनके कर्तव्यों के निवार्ह के दौरान किये गए कार्यो तथा दायित्व के उल्लंघन पर प्रकाशित हुई है, तो सरकारी अधिकारी इसमे नुकसानी प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकता है बस उसे साबित करना होगा की प्रकाशित खबर झूठी एवं असत्य हैं, प्रेस को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है जो कुछ उसने लिखा है वह सत्य है।
"इसी मामले को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता के अधिकार पर एक ऐतिहासिक मामला आज भी माना जाता है।" Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article) :- लेखक ✍️बी.आर. अहिरवार (पत्रकार एवं विधिक सलाहकार होशंगाबाद) 9827737665
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