समय के राहू ने ऐतिहासिक, बुलन्द और अनेक कलाओं, शिक्षा-दीक्षा, फलित ज्योतिष के पोषक रहे नरसिंहगढ़ किले की खूबसूरती, रोनक को भले ही ग्रहण लगा दिया हो। मगर आज भी इसके बुलंद खंडहर मल्हार सुनाते लगते है। ये अपनी ही तान पर थिरकता प्रतीत होता है।
धरती के रंग - लेखक श्याम चोरसिया राजगढ़
अल सुबह जब सूर्य किले के पीछे उदय होता है। तब भटकती सुनहरी सूर्य किरणे नरसिंहगढ़ के किले को नहलाती सी लगती है। जैसे ये स्वर्ण कुंड में गोते लगा रहा हो। कभी कभी बादल जब गुस्से में होते है। तब किला और कमल की तरह खिल, लुभाने, मुस्कराने लगता। निराली छटा को निहारने का मोह शायद ही कोई चूकना पसन्द करेगा। शायद इसी खूबी की वजह से पुरानी पीढ़ी के लोग तमाम प्रतिकूलताओं,असुविधाओं के बाबजूद नरसिंहगढ़ को तज अन्य सुविधा सम्पन्न नगरों को अपनाना या वहाँ निवास करना कम पसन्द करते है।
करे भी क्यों न। किला तो मस्त किए ही रहता है। इसके अलावा हर धार्मिके पर्व,सावन,भादौ, क्वार, कार्तिक,चैत्र में यहां के देवालयों में धूमधाम से मनाने की अलौकिक आनंदमयी,रसमयी सनातनी परम्परा चली आ रही है।
सतपुड़ा की पर्वत माला का अभिन्न अंग की खास रोनक छोटे,बड़े महादेव, कोदू पानी आदि पचासों सिद्ध देवालय है। जिसकी वजह से ये साक्षात बृन्दावन है। भला बृन्दावन को कोई यू ही तज सकता है?
हनुमान जयंती,होली, शरद पूर्णिमा आदि सनातनी पर्व मालवा ए कश्मीर नरसिंहगढ़ के अलावा मालवा के किसी अन्य कस्बे में इतनी दिव्यता,भव्यता से मनाते हो।शरद पूर्णिमा पर तो पहाड़ो की गोद मे बसा ये इतिहासिक कस्बा अमृत वर्षा करता प्रतीत होता है।
सूर्योदय से ज्यादा सूर्यास्त भी बेमिसाल है। सूर्यास्त के समय किला सम्पूर्ण रूप से नहा उठता। इसकी बुलन्दगी नृत्य करने लगती। ये अहसास होता। काश राहू किले की लय को ग्रहण न लगाता तो व्रहस्पति इसे जीवंत, गतिशील बनाए रखते।