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Bhopal Samachar

सामान्य ज्ञान - भारतीय वायु सेना की अधिकृत कहानी, प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी

भारत में 8 अक्टूबर 1932 को भारतीय वायु सेना (आईएएफ) के रूप में राष्ट्र के नए प्रहरी का स्वागत किया गया। वायु सेना के रुप में देश के रक्षा क्षेत्र में एक नए महत्वपूर्ण अध्याय की शुरुआत हुई।

IAF's first operational flight

भारतीय वायुसेना ने 1 अप्रैल, 1933 को पहली परिचालन उड़ान भरी। छह आरएएफ प्रशिक्षित अधिकारियों तथा 19 वायु सैनिकों का एक छोटा सा लेकिन दृढ़ संकल्पित समूह चार वेस्टलैंड वापीति IIA बाइप्लेन में सवार था। इसने ड्रिग रोड पर "ए" फ्लाइट का केंद्र बनाया और योजनाबद्ध तरीके से पहली (सैन्य सहयोग से) स्क्वाड्रन की नींव रखी। यह उस समय छोटी शुरुआत थी, लेकिन आगे चलकर विश्व की सबसे शक्तिशाली वायु सेनाओं में से एक के रूप में विकसित हुई।

Indian Air Force's first strategic flight

भारतीय वायुसेना की पहली सामरिक उड़ान 1936 में प्रारंभ हुई थी, जो इसके गठन के सिर्फ साढ़े चार साल बाद भरी गयी, "ए" फ्लाइट ने उत्तरी वजीरिस्तान के मीरानशाह से अपनी पहली कार्रवाई की, जिसमें उसने विद्रोही भिटानी जनजातियों के खिलाफ भारतीय सेना के अभियानों में भरपूर सहयोग किया।

Indian Air Force units during World War II

इसके बाद अप्रैल 1936 में, "बी" फ्लाइट की स्थापना की गई, जिसमें विंटेज ️वापीति जहाज का भी उपयोग किया गया। जून 1938 तक "सी" फ्लाइट का गठन नहीं हुआ था, जिससे नंबर 1 स्क्वाड्रन अपनी पूरी ताकत पर आ गई। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर यह स्क्वाड्रन एकमात्र भारतीय वायुसेना इकाई बनी रही, हालांकि इसमें 16 अधिकारी और 662 सैनिक शामिल थे ।

Recommendations of the Chatfield Committee

एक तरफ जब वैश्विक संघर्ष बढ़ रहा था, तब 1939 में चैटफील्ड समिति द्वारा भारत की सुरक्षा का पुनर्मूल्यांकन किया गया। समिति ने भारत स्थित रॉयल एयर फोर्स (आरएएफ) स्क्वाड्रनों को पुनः सुसज्जित करने का प्रस्ताव रखा और साथ ही भारतीय वायुसेना के विकास के लिए कुछ सिफारिशें भी रखीं। इसमें भी प्रमुख बंदरगाहों की सुरक्षा के लिए स्वैच्छिक आधार पर पांच तटीय रक्षा उड़ानें (सीडीएफ) स्थापित करने की योजना को अधिकृत किया गया।

ये उड़ानें प्रमुख शहरों से नियमित भारतीय वायुसेना और आरएएफ कर्मियों के केंद्र के आस-पास संचालित होती हैं। इनमें मद्रास में नंबर 1, बॉम्बे में नंबर 2, कलकत्ता में नंबर 3, कराची में नंबर 4 और कोचीन में नंबर 5 शामिल हैं। बाद में विशाखापत्तनम में नंबर 6 का गठन किया गया।

armstrong whitworth atlanta ship

मार्च 1941 तक, जब भारतीय वायुसेना की मांग बढ़ने लगीं, तो नंबर 1 और नंबर 3 सीडीएफ ने सुंदरबन डेल्टा क्षेत्र में गश्त के लिए अपने ‘वापीति’ जहाज से आगे बढ़ते हुए ‘आर्मस्ट्रांग व्हिटवर्थ अटलांटा जहाज’ का सहारा लिया। इसे अपने बेड़े में शामिल करने के साथ ही डी.एच. 89 ड्रैगन रैपिड्स और एक डी.एच. 86 का इस्तेमाल केप कैमोरिन के पश्चिम तथा मालाबार तट पर गश्त के लिए किया जाता था। इस दौरान भारतीय वायुसेना के विकास एवं अनुकूलनशीलता के लिए मंच तैयार किया गया और हवाई रक्षा में इसके भविष्य की प्रगति के लिए एक ठोस आधार तैयार हुआ।

IAF's Capacity Building: Training and Extension during Wartime (1941-1946)

उस दौर में जैसे-जैसे द्वितीय विश्व युद्ध बढ़ता जा रहा था, वैसे-वैसे भारतीय वायु सेना द्वारा सामरिक गतिविधियों के विस्तार के लिए एक व्यापक प्रशिक्षण संरचना की ज़रूरत को महसूस किया गया  । ब्रिटिश रॉयल एयर फोर्स (आरएएफ) ने अगस्त 1941 के दौरान ब्रिटिश भारत में विभिन्न उड़ान क्लबों को उड़ान प्रशिक्षकों की नियुक्ति की, जिससे आईएएफ वालंटियर रिजर्व (आईएएफ वीआर) कैडेटों के महत्वपूर्ण कौशल उन्नयन के लिए मंच तैयार हुआ।

उस वर्ष के अंत तक, 364 कैडेटों को ब्रिटिश भारत के सात क्लबों और दो रियासतों के क्लबों में टाइगर मॉथ विमान पर प्रारंभिक उड़ान प्रशिक्षण प्राप्त हुआ, जो भारतीय वायुसेना के विकास में एक महत्वपूर्ण क्षण था।

आधुनिकीकरण के प्रयास तभी नजर आने लगे थे जब नंबर 1 स्क्वाड्रन ने वेस्टलैंड लिसेंडर में अपना रूपांतरण शुरू कर दिया, जिसे बॉम्बे वॉर गिफ्ट्स फंड द्वारा उपहार स्वरूप दिए गए 12 लिसेंडरों से और भी बल मिला। यह बदलाव न केवल विमान में उन्नयन का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि यह एक रणनीतिक वृद्धि भी थी, जिससे स्क्वाड्रन को अधिक जटिल ऑपरेशन पूरा करने की सामर्थ्य प्रदान कर दी थी।

इसके साथ ही, सितम्बर 1941 में नम्बर 2 स्क्वाड्रन को वापीति से ऑडैक्स में स्थानांतरित कर दिया गया। इसके बाद फिर नम्बर 3 स्क्वाड्रन का गठन किया गया और उसने भी ऑडैक्स मॉडल को अपनाया। ये परिवर्तन परिचालन तत्परता में सुधार लाने की प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं, जिससे भारतीय वायुसेना उभरते खतरों का अधिक प्रभावी ढंग से जवाब देने में सक्षम बनी।

आईएएफ वीआर को नियमित आईएएफ में शामिल किया गया। युद्धकालीन परिचालन की तीव्र आवश्यकता ने भारतीय वायुसेना के निरंतर विस्तार करने के लिए प्रेरित किया। वर्ष 1942 के अंत तक, नंबर 2 स्क्वाड्रन ने भी हरिकेन विमान को अपने बेड़े में शामिल कर लिया था, जिससे इसकी परिचालन क्षमता बढ़ गयी।

इसके बाद वर्ष 1942 के अंत तक भारतीय वायु सेना ने सीमित संसाधनों और पुराने उपकरणों के बावजूद, पांच स्क्वाड्रनों को प्रभावी ढंग से संचालित करने में सफलता हासिल की। तटीय रक्षा उड़ानों को समाप्त करने से कार्मिकों के पुनर्गठन का अवसर मिला, जिसका समापन नंबर 7 स्क्वाड्रन के गठन के साथ हुआ और यह फरवरी 1943 के मध्य में अमरीका में बने वेन्जेन्स I गोता लगाने वाले बमवर्षक विमान से लैस हो गया।

वर्ष 1944 में जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे भारतीय वायुसेना की संचालन शक्ति का विस्तार जारी रहा। वर्ष के अंत तक नौ स्क्वाड्रन सक्रिय हो चुके थे, जिनमें से अधिकांश हरिकेन से सुसज्जित थे और एक स्पिटफायर जहाज से लैस था।

युद्ध के दौरान, वायुसेना के कर्मियों को उनकी बहादुरी और समर्पण को सम्मान देते हुए 22 विशिष्ट फ्लाइंग क्रॉस तथा कई अन्य अलंकरणों से सम्मानित किया गया। भारतीय वायु सेना को मार्च 1945 में "रॉयल" उपाधि से सम्मानित किया गया, जो इसकी उभरती भूमिका और क्षमताओं का प्रमाण रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साल 1946 तक भारतीय वायु सेना कार्मिकों की संख्या बढ़कर 28,500 हो गई, जिनमें लगभग 1,600 अधिकारी शामिल थे।

Rejuvenation of the Indian Air Force after Independence (1947-1949)

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय वायु सेना (आईएएफ) में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गए। कार्मिक संख्या लगभग आधी रह गई और इसमें केवल 14,000 अधिकारी तथा सैनिक शेष बचे। अक्टूबर 1946 तक, मौजूदा दस आरआईएएफ स्क्वाड्रनों को 20 के संतुलित बल में विस्तारित करने की योजना बनाई गई थी।

उस समय जैसे-जैसे राजनीतिक परिदृश्य बदलता गया, रक्षा संबंधी निर्णायक निर्णय स्वतंत्र भारत की नई सरकार पर छोड़ दिए गए। जापान से लौटने पर नंबर 4 स्क्वाड्रन को टेम्पेस्ट II में परिवर्तित कर दिया गया, जबकि नंबर 7 और 8 स्क्वाड्रनों को भी स्पिटफायर से टेम्पेस्ट में रूपांतरित किया गया। 15 अगस्त, 1947 को भारत के विभाजन के साथ ही कई यूनिटें हट गईं और उन्होंने अपने उपकरण नवगठित रॉयल पाकिस्तान एयर फोर्स को स्थानांतरित कर दिए।

इसके बाद संघर्ष के अगले 15 महीनों में आरआईएएफ का निरंतर पुनर्गठन और आधुनिकीकरण किया गया । इसके संचालन की देख-रेख के लिए नई दिल्ली में वायु सेना मुख्यालय की स्थापना की गई। साल 1948 में, नंबर 2 स्क्वाड्रन को स्पिटफायर XVIII से पुनः सुसज्जित किया गया और नंबर 9 स्क्वाड्रन को उसी प्रकार से पुनः स्थापित किया गया। नंबर 101 फोटो टोही उड़ान का गठन भी हुआ और उसने अप्रैल 1950 में स्क्वाड्रन का दर्जा प्राप्त किया।

कुल मिलाकर इसने विकासशील क्षमताओं को विश्व पटल पर रखा। कश्मीर ऑपरेशन के दौरान हुए नुकसान की भरपाई के लिए अतिरिक्त टेम्पेस्ट II खरीदे गए और बचाए गए अवशेषों से बी-24 लिबरेटर्स के पुनर्निर्माण की योजना शुरू की गई। योजना के तहत नवंबर 1948 तक नंबर 5 स्क्वाड्रन का गठन किया गया।

IAF's Establishment and expansion of the Indian Republic (1950–1962)

जनवरी 1950 में भारत ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंतर्गत एक गणराज्य बन गया, जिसके कारण भारतीय वायु सेना (आईएएफ) ने अपने नाम के आगे से "रॉयल" शब्द हटा दिया। उस समय, भारतीय वायुसेना में स्पिटफायर, वैम्पायर और टेम्पेस्ट से सुसज्जित छह लड़ाकू स्क्वाड्रन शामिल थे, जो कानपुर, पूना, अंबाला तथा पालम से संचालित होते थे।

इसके अलावा, पालम में एक बी-24 बमवर्षक स्क्वाड्रन, एक सी-47 डकोटा परिवहन स्क्वाड्रन, एक एओपी उड़ान और एक संचार स्क्वाड्रन भी था। प्रशिक्षण में आरएएफ के मानकों का पालन किया गया और पायलट प्रशिक्षण के लिए हैदराबाद में नंबर 1 फ्लाइंग ट्रेनिंग स्कूल तथा जोधपुर में नंबर 2 एफटीएस जैसे प्रमुख संस्थान स्थापित किए गए।

1950 के प्रारम्भ में, नम्बर 2 स्क्वाड्रन को स्पिटफायर XVIII विमान से पुनः सुसज्जित कर दिया गया था। 9 नम्बर स्क्वाड्रन को भी इसी प्रकार से पुनः स्थापित किया गया, जबकि नम्बर 101 फोटो रिकोनैसेंस फ्लाइट ने अप्रैल 1950 में पूर्ण स्क्वाड्रन का दर्जा प्राप्त कर लिया। साल 1951 तक, वैम्पायर एनएफ एमके 54 लड़ाकू विमानों के आगमन के साथ रात्रिकालीन युद्धक क्षमताओं में बढ़ोतरी हुई।

पाकिस्तान के साथ बिगड़ते संबंधों के बीच, भारतीय वायु सेना ने  1953 और 1957 के बीच बड़े विस्तार की योजना बनाई। योजना के तहत अक्टूबर 1953 में डसॉल्ट ऑरागन लड़ाकू विमान का चयन किया गया, जिनमें से पहले चार विमान 24 अक्टूबर, 1953 को भारत पहुंचे। इसके साथ ही, 1951 में एक दूसरा परिवहन स्क्वाड्रन बनाया गया। 

साल 1954 के अंत तक भारतीय वायुसेना ने 26 फेयरचाइल्ड सी-119जी पैकेट्स खरीद लिए, जिससे भारतीय एयरलिफ्ट क्षमता बढ़ गई। वर्ष 1955 में अनुरक्षण कमान की स्थापना हुई और सहायक वायुसेना का पुनरुत्थान हुआ, जिसके तहत पूरे भारत में कई अन्य स्क्वाड्रन गठित किये ।

वर्ष 1957 में 110 डसॉल्ट मिस्टेयर आईवीए के आगमन के साथ ही, हॉकर हंटर्स और इंग्लिश इलेक्ट्रिक कैनबरा के आने से आधुनिकीकरण का एक महत्वपूर्ण प्रयास शुरू हुआ। तब तक भारतीय वायुसेना 15 स्क्वाड्रन बल से 33 स्क्वाड्रन के लक्ष्य तक  गयी थी। भारतीय वायुसेना की सैन्य क्षमताओं का परीक्षण 1961 में कांगो में संयुक्त राष्ट्र मिशन के दौरान किया गया, जहां पर इंग्लिश इलेक्ट्रिक कैनबरा ने महत्वपूर्ण लंबी दूरी की हवाई यात्रा में सहायता की।

चीन के साथ बढ़ता तनाव अगस्त 1962 में मिग-21 लड़ाकू विमानों और सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलों की खरीद के लिए सोवियत संघ के साथ प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर के साथ समाप्त हुआ। यह  भारतीय वायुसेना के परिचालन ढांचे में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक था।

Modernisation of the Indian Air Force (1966–1971)

भारतीय वायु सेना (आईएएफ) ने वर्ष 1966 और 1971 के बीच, आधुनिकीकरण एवं रणनीतिक विस्तार द्वारा एक परिवर्तनकारी अवधि का अनुभव किया, जो मुख्य रूप से भारत-पाकिस्तान संघर्ष से सीखे गए सबक पर आधारित थी। इस दौरान न केवल सक्षम और अच्छी तरह से प्रशिक्षित कार्मिक आधार के महत्व को रेखांकित किया गया, बल्कि उन्नत व प्रभावी उपकरणों की महत्वपूर्ण आवश्यकता को भी समझा गया।

आधुनिकीकरण के इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर मिग-21 एफएल का आगमन था, जो मिग-21 का उन्नत संस्करण था, जिसे कई स्क्वाड्रनों द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगा। इस विमान में उन्नत क्षमताएं थीं, जो हवाई युद्ध एवं आवश्यक कार्रवाई के लिए महत्वपूर्ण थीं और फिर इनसे उन स्क्वाड्रनों को पुनः सुसज्जित करने में मदद मिली, जो वैम्पायर एफबीएमके 52 जैसे अप्रचलित मॉडलों का उस समय भी संचालन कर रहे थे।

इस दौरान नए स्क्वाड्रनों का गठन भारतीय वायुसेना की युद्ध तत्परता बढ़ाने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। ग्नैट युद्धक विमान ने 1965 के संघर्ष में अपनी योग्यता सिद्ध की थी और फिर उसका उत्पादन पुनः शुरू किया गया। परिणामस्वरूप 1968 तक चार अतिरिक्त ग्नैट स्क्वाड्रनों की स्थापना हुई। मिग-21 एफएल और ग्नैट के अलावा भी, भारतीय वायु सेना ने ‘सुखोई एसयू-7 बीएम’ को भी अपने बेड़े में शामिल किया, जिसका आगमन मार्च 1968 में शुरू हुआ।

भारतीय वायु सेना ने साठ के दशक से सत्तर के दशक में प्रवेश करते समय न केवल अपनी विस्तार योजनाओं को सुदृढ़ किया, बल्कि अपने संचालन की दक्षता और प्रभावशीलता को बढ़ाने पर भी ध्यान केंद्रित किया। इस वृद्धि के कारण धीरे-धीरे अप्रचलित उपकरणों को हटाना तथा अधिक संख्या में एचएफ-24, मिग-21एफएल व सुखोई एसयू-7बीएम को वायु सेना में शामिल करना आवश्यक हो गया।

भारतीय वायुसेना ने तत्कालीन  खतरों और विशेषकर चीन-भारत सीमा पर हुए घटनाक्रम के जवाब में मार्च 1971 में एक व्यापक वायु रक्षा भू-पर्यावरण प्रणाली (एडीजीईएस) की योजना शुरू की। इस प्रणाली का उद्देश्य निगरानी क्षमताओं को बढ़ाना तथा वायु सेना की समग्र परिचालन तत्परता में सुधार करना था। जनवरी, 1971 में डुंडीगल में वायु सेना अकादमी का उद्घाटन एक सशक्त प्रशिक्षण बुनियादी ढांचे के विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। यह आगामी वर्षों में भारतीय वायुसेना की परिचालन क्षमता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ।

Indian Air Force - Kargil conflict; Changes and challenges

वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से लेकर 1999 के कारगिल संघर्ष तक भारतीय वायु सेना (आईएएफ) का विकास इसकी महत्वपूर्ण वृद्धि व आधुनिकीकरण प्रक्रिया को दर्शाता है। 1971 के युद्ध में भारतीय वायुसेना के प्रभावी संचालन ने इसकी प्रारंभिक ताकत को दर्शाया था।, युद्ध में 4,000 से अधिक उड़ानें और ग्नैट तथा मिग-21 जहाज के दम पर हवाई श्रेष्ठता प्रदर्शित की गयी थी।

1970 के दशक के मध्य तक भारतीय वायु सेना का आधुनिकीकरण हो गया। ‘जगुआर’ तथा ‘मिराज 2000’ जैसे विमानों को शामिल करके भारतीय वायु सेना की ताकत बढ़ी।

1999 के कारगिल युद्ध के दौरान, ऑपरेशन सफेदसागर में भारतीय वायुसेना की सटीक हवाई सहायता, विशेष रूप से अत्यधिक ऊंचाई वाले इलाकों में, आधुनिक युद्ध के लिए इसकी क्षमता को रेखांकित करती है। भारत की तरफ हताहतों की संख्या को न्यूनतम करने और दुश्मन के सुरक्षा घेरे को बेअसर करने में वायु सेना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इस दौरान, ‘मिग’ और ‘मिराज’ बेड़े ने चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। एमआई-17 जैसे संशोधित हेलीकॉप्टरों के सफल प्रयोग ने भारतीय वायुसेना के सामरिक लचीलेपन पर और अधिक जोर दिया।

वर्ष 1999 के बाद, भारतीय वायुसेना का आधुनिकीकरण 2016 में स्वदेशी ‘तेजस’ हल्के लड़ाकू विमान के शामिल होने के साथ जारी रहा, जिसे बहु-भूमिका मिशनों के लिए डिजाइन किया गया था, जिसमें उन्नत एवियोनिक्स और गतिशीलता की विशेषता समाहित है।

यह विकास भारतीय वायुसेना के एक दुर्जेय, तकनीकी रूप से उन्नत बल में परिवर्तन को दर्शाता है।

Indian Air Force 92nd Foundation Day

वर्ष 2024 में भारतीय वायुसेना अपना 92वां स्थापना दिवस मना रही है, जिसमें वह अपनी समृद्ध विरासत का सम्मान करते हुए परिचालन क्षमताओं को सशक्त बनाने और राष्ट्रीय गौरव को बढ़ावा देने के प्रति अपनी वचनबद्धता की पुष्टि करेगी। यह स्मरणोत्सव 6 अक्टूबर को शुरू हुआ और 8 अक्टूबर को दक्षिणी शहर चेन्नई में समाप्त होगा, जिसे उत्सव के जीवंत केंद्र में बदल दिया गया है।

जब देश की वायुसेना "भारतीय वायु सेना - सक्षम, सशक्त, आत्मनिर्भर" की विषय-वस्तु पर आधारित एक शानदार एयर शो का प्रदर्शन करती है, तो मरीना बीच के ऊपर का आसमान जीवंत हो उठता है। यह गतिविधि भारत के हवाई क्षेत्र की सुरक्षा के प्रति भारतीय वायुसेना के अटूट समर्पण को दर्शाती है। साथ ही आत्मनिर्भरता पर भी जोर देती है।

Importance and utility of Indian Air Force

भारतीय वायु सेना (आईएएफ) भारत की रक्षा रणनीति का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो बहादुरी एवं नवाचार की समृद्ध विरासत का प्रतीक है। अपने आधुनिक बेड़े और उन्नत तकनीकी क्षमताओं के साथ, भारतीय वायुसेना देश की संप्रभुता की रक्षा करने तथा क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

कड़े प्रशिक्षण, रणनीतिक साझेदारी और मानवीय अभियानों के लिए प्रतिबद्धता के माध्यम से भारतीय वायुसेना न केवल देश के आसमान की रक्षा करती है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को भी बढ़ावा देती है। भारतीय वायु सेना ईमानदारी, सेवा और उत्कृष्टता के मूल मूल्यों को कायम रखने के लिए समर्पित है। 

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