आजाद भारत का सबसे वीर योद्धा: अकेले लड़ा, चीन के 300 सैनिक मार डाले - GK HINDI

साल 1962 में वो 17 नवंबर का दिन था, जब चीनी सेना ने चौथी बार अरुणाचल प्रदेश पर हमला किया चीन का मकसद साफ़ था- अरुणाचल प्रदेश पर पूरी तरह से कब्ज़ा करना। ये तब की बात है जब इंडो-चाइना वॉर छिड़ा हुआ था लेकिन तब चीन के लक्ष्य के बीच दीवार बनकर खड़े हो गए गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन के राइफलमैन जसवंत सिंह रावत। इंडो-चाइना वॉर 20 अक्टूबर, 1962 से 21 नवंबर, 1962 तक चला लेकिन 17 नवंबर से 72 घंटों तक जसंवत सिंह जिस बहादुरी के साथ चीनी सेना का सामना करते रहे, वो उनके अदम्य वीरता और शौर्य की कहानी है।

जसंवत सिंह के कारण इतिहास मूल्यवान हो गया

भारत माँ के गर्भ से पैदा होने वाले वैसे तो लाखो जवान हैं मगर कुछ जवान ऐसे भी होते हैं जो हमेशा के लिए अपनी बहादुरी के झंडे गाढ़ देते हैं उनमे से एक नाम भारत माँ के आँचल उत्तराखंड की धरती पर जन्मे वीर जसवंत सिंह रावत का भी है। जिनके जैसी बहादुरी शायद आजतक के इतिहास में कोई ही कर पाया हो। इस वीर जवान की बहादुरी पर जितने शब्द लिखू उतने कम हैं। मगर फिर भी इनकी बहादुरी की सच्ची दास्तां को शब्दों में पिरोकर इनकी वीरता का बखान कर ही देता हूँ। 

17 साल की उम्र में ही सिलेक्शन हो गया था

पिता गुमान सिह रावत की देख रेख में पले बढे और लीला देवी रावत की कोख से जन्मे वीर जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त 1941 को ग्राम-बाड्यूँ ,पट्टी-खाटली, ब्लाक-बीरोखाल,जिला-पौड़ी गढ़वाल,उत्तराखंड में हुआ था। वीर जसवंत के अंदर देश भक्ति की इतनी भावना थी की वे 17 साल की छोटी उम्र में ही सेना में भर्ती होने के लिए चले गए लेकिन उम्र कम होने के कारण उन्हें सेना में भर्ती होने से रोक लिया गया और जैसे ही उनकी उम्र पूरी हुयी उनको भारतीय सेना में राइफल मैन के पद पर शामिल कर लिया गया था और अपने अदम्य सहस के साथ भारत माँ का यह वीर जवान 17 नवम्बर 1962 के चीन युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ।

पोस्ट पर सिर्फ 3 जवान मौजूद थे

अपने तीसरे हमले में अरुणांचल प्रदेश के तवांग नामक स्थान से महात्मा बुद्ध की मूर्ति के हाथों को काटकर ले जाने वाले चीनी सैनिकों ने जब 17 नवम्बर 1962 को अरुणांचल प्रदेश पर कब्ज़ा करने के लिए अपना चौथा और आखिरी हमला किया तो उस वक़्त वहाँ भारतीय सेना ना तो युद्ध के लिए तैयार थी न कोई रणनीति थी और न ही ज्यादा जवान थे और न ही उनके पास कोई युद्ध करने की कोई मशीनें, वाहन, और अन्य यंत्र सिर्फ एक रायफल थी। पोस्ट पर सिर्फ 3 जवान मौजूद थे। 
1. रायफल मैन जसवंत सिंह रावत
2. लांस नाइक त्रिलोक सिंह नेगी
3. रायफल मैन गोपाल सिंह गुसाईं

जसवंत सिंह रावत के कारण चीन आज भी भारत से डरता है

इस वक़्त जसवंत सिंह रावत ने एक कड़ा और अदम्या फैसला लिया कि कुछ भी हो जाये वो वापस नहीं जायेंगे और उन्होंने लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और रायफल मैन गोपाल सिंह गुसाईं को वापस भेज दिया और खुद नूरानांग की पोस्ट पर तैनात होकर दुश्मनों को आगे न बढ़ने देने का फैसला किया। जसवंत सिंह रावत ने अकेले ही 72 घंटो तक चीन के 300 दुश्मनों को मौत के घाट उतारा और किसी को भी आगे नहीं बढ़ने दिया। यह उनकी सूझबूझ के कारण ही संभव हो सका। क्यूंकि उन्होंने पोस्ट की अलग-अलग जगहों पर रायफल तैनात कर दी थी और कुछ इस तरह से फायरिंग कर रहे थे की चीन की सेना को लग रहा था की यहाँ पूरी की पूरी बटालियन मौजूद हैं। 

शैला और नूरा की शहादत

इस बीच रावत के लिए खाने पीने का सामान और उनकी रसद (supply) आपूर्ति वहाँ की दो बहनों शैला और नूरा ने की जिनकी शहादत को भी कम नहीं आँका जा सकता। 72 घंटे तक चीन की सेना ये नहीं समझ पाई की उनके साथ लड़ने वाला एक अकेला सैनिक है। फिर 3 दिन के बाद जब नूरा को चीनी सैनिको ने पकड़ दिया तो उन्होंने इधर से रसद (supply) आपूर्ति करने वाली शैला पर ग्रेनेड से हमला किया और वीरांगना शैला शहीद हो गयी और उसके बाद उन्होंने नूरा को भी मार दिया दिया। इनकी इतनी बड़ी शहादत को हमेशा के लिए जिंदा रखने के लिए आज भी नूरनाग में भारत की अंतिम सीमा पर दो पहाड़िया है जिनको नूरा और शैला के नाम से जाना जाता है। 

ना चीन के हाथ आए और ना चीन की गोली से मरे

इसके बावजूद भी जसवंत सिंह रावत दुश्मनों से लड़ते रहे पर रसद आपूर्ति (supply) की कड़ी कमजोर पड गयी थी और फिर जसवंत सिंह ने 17 नवम्बर 1962 को खुद को गोली मार कर अपने प्राण न्योछावर कर दिए और भारत माँ की गोद में हमेशा के लिए अमर हो गए।

चीन ने भी सम्मान में सिर झुकाया

फिर जब चीनी सैनिको ने देखा की वो 3 दिन से एक ही सिपाही के साथ लड़ रहे थे तो वो भी हैरान रह गए। वो जसवंत सिंह रावत का सर काटकर अपने देश ले गए। 20 नवम्बर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा कर दी गयी और चीनी कमांडर ने जसवंत सिंह की इस साहसिक बहादुरी को देखते हुए न सिर्फ जसवंत सिंह का शीश वापस लौटाया बल्कि सम्मान स्वरुप एक कांस की बनी हुई जसवंत सिंह की मूर्ति भी भेंट की।

युद्ध स्थल पर जसवंत के नाम का स्मारक बना है

जिस जगह पर जसवंत सिंह ने दुश्मनों के दांत खट्टे किये थे उस जगह पर जसवंत सिंह के नाम का एक मंदिर बनाया गया है और उस मंदिर में चीनी कमांडर द्वारा सौंपी गयी जसवंत सिंह की मूर्ति को रखा गया है। यहाँ से गुजरने वाला हर व्यक्ति उनको शीश झुकाता है और जवान अपनी ड्यूटी पर जाने से पहले उनको नमन करते हैं। मान्यता है की जब भी कोई जवान ड्यूटी पर सोता है जसवंत सिंह रावत उनको थप्पड़ मारकर जागते हैं और मानो उनके कानों में कहते हो की मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी करो देश की सुरक्षा तुम्हारे हाथो में हैं।

आज भी वर्दी पर प्रेस और जूतों पर पॉलिस की जाती है

इनके नाम से नुरानांग में जसवंत गढ़ के नाम से मानूरानांग में एक जगह भी है जहा इनका बहुत बड़ा स्मारक है यहं इनकी हर चीज को संभाल कर रखा गया है यहाँ इनके कपड़ों पर रोज प्रेस की जाती है रोज इनके बूटो पर पोलिश की जाती है और रोज सुबह दिन और रात की भोजन की पहली थाली जसवंत रावत को परोसी जाती है। आज जसवंत गढ़ इलाके की पूरी देख रेख सिख रेजिमेंट की 10वी बटालियन के हाथ में है और जवान बताते हैं कि जब सुबह उठ कर इनके कपड़ों को देखे तो लगता है की किसी ने उनको पहना है। उनके बूटो पर रोज पोलिश की जाती है मगर सुबह फिर लगता है मानो किसी ने पहने हो। 

मरणोपरांत आज भी प्रमोशन दिया जाता है, पूरा वेतन मिलता है

जसवंत सिंह रावत भारत के पहले ऐसे जवान है जिनको मरणोपरांत भी पदोन्नति दी जाती है। रायफल मैन जसवंत सिंह आज कैप्टेन की पोस्ट पर हैं और उनके परिवार वालों को उनकी पूरी तनख्वाह दी जाती है। वीर जसवंत सिंह रावत का लोहा सिर्फ भारत नहीं बल्कि पूरी दुनिया मानती है हमें भी गर्व है की हम ऐसे वीरो की भूमि में पैदा हुए हैं।
• नाम-रायफल मैन जसवंत सिंह
• जन्म-19 अगस्त 1941
• स्थान –पौड़ी गढ़वाल
• राष्ट्रीयता-भारत
• उपलब्धि-Mahavir Chakra

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