भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका पर सुनवाई चल रही है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना की गई है कि वह, अपराधी नेताओ पर चुनाव के लिए आजीवन प्रतिबंध लगा दे। यानी जो नेता अपराधी घोषित हो गया है, उसके ऊपर तब तक प्रतिबंध रहेगा जब तक कि वह स्वयं को निर्दोष प्रमाणित नहीं कर देता है। सिर्फ इतना ही नहीं, यदि कोई सांसद या विधायक, अपराधी पाया जाता है तो उसकी सांसद एवं विधानसभा की सदस्यता समाप्त हो जाएगी। उसे पेंशन भी नहीं दी जाएगी। इस मामले में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब प्रस्तुत किया है।
सुप्रीम कोर्ट नही संसद तय करेगी किस पर कितना प्रतिबंध लगाना है
वकील अश्विनी उपाध्याय ने 2016 में एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसमें जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 और 9 की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया गया था। केंद्र सरकार का मानना है कि आजीवन अयोग्यता सबसे बड़ी सजा है, जो कानूनी प्रावधानों के तहत दी जा सकती है, और इसका अधिकार संसद के पास है, लेकिन यह कहना अलग बात है कि यह शक्ति मौजूद है और यह कहना दूसरी बात है कि हर मामले में इसका अनिवार्य रूप से इस्तेमाल किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के तर्क
- संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 में संसद को यह अधिकार दिया गया है कि वह चुनाव लड़ने की योग्यता और अयोग्यता तय करे।
- जनप्रतिनिधित्व अधिनियम संसद द्वारा पारित कानून है, और इसमें संसद ने पहले से ही अपराधियों के लिए 6 साल के प्रतिबंध का प्रावधान रखा है।
- अन्य अयोग्यता के आधार भी स्थायी नहीं हैं – जैसे दिवालियापन, लाभ के पद पर होना आदि। तो सिर्फ दोषसिद्धि के आधार पर आजीवन बैन क्यों हो?
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में दिया था फैसला
अप्रैल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि जिन सांसदों या विधायकों को कम से कम 2 साल की सजा मिलेगी, वे तत्काल प्रभाव से सदन से निष्कासित होंगे। साथ ही अपील के लिए 3 महीने की अवधि नहीं मिलेगी। केंद्र ने संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 का हवाला देते हुए कहा कि अयोग्यता से जुड़े कानून बनाने का अधिकार संसद को दिया गया है। संसद के पास यह तय करने की शक्ति है कि अयोग्यता के क्या आधार होंगे और यह कितनी अवधि तक लागू रहेगी।
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