कृप: परशुरामश्च सत्यैते चिरजीविन:।
सप्तैतान् संस्मरे न्नित्यं मार्कण्डेय यथाष्टकम्
जीवेद्वर्षशतं सोऽपि सर्वव्याधि विवर्जित:।।
१. अश्वत्थामा, २. बलि, ३. व्यास, ४. हनुमान, ५. विभीषण, ६. कृपाचार्य, ७. परशुराम, ८. ऋषि मार्कण्डेय- इन आठ विभूतियों को हमारे सनातन धर्म में चिरंजीवी माना गया है। इन सभी चिरंजीवियों को प्रात:श्रद्धापूर्वक स्मरण करने से व्यक्ति दीर्घायु होता है और आजीवन सुखी रहता है।
अश्वत्थामा की कथा
अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार अश्वत्थामा के माथे (ललाट) पर एक विशेष प्रकार की मणि थी, जिसके कारण उन्हें भूख, प्यास तथा थकान नहीं लगती थी। उस अभूतपूर्व मणि के कारण उन्हें अमरत्व का वरदान प्राप्त था। अश्वत्थामा को शिवजी का पाँचवाँ अवतार माना जाता है। कथन है कि अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने की योजना बनाई और ब्रह्मास्त्र से उस गर्भ की हत्या कर दी। इतना ही नहीं अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पाँचों पुत्रों की भी हत्या कर दी। इस घटना से भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें शाप दिया था कि वे विश्व में हमेशा घूमते रहेंगे और इधर-उधर भटकते रहेंगे। कहा जाता है कि उनके माथे (ललाट) पर एक घाव है। वे शिव मंदिरों में पूजन के लिए जाते रहते हैं। किंवदन्ती है कि बुरहानपुर के आसपास के जंगलों में वे घूमते रहते हैं। अश्वत्थामा की अमरता आनन्दमयी नहीं है। उनकी अमरता दु:खमय और कष्टपूर्ण जीवन का प्रतीक है।
अश्वत्थामा बड़े पराक्रमी और धनुर्विद्या में पारंगत थे। द्रोणाचार्य ने अपनी पत्नी कृपी के साथ हिमालय की कंदराओं में तप किया था तो भगवान शिव ने उन्हें शक्तिशाली, तेजस्वी व बलवान पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके प्रभाव से अश्वत्थामा का जन्म हुआ।
राजा बलि की कथा
राजा बलि तीनों लोकों के राजा थे। देवतागण इस बात से बड़े परेशान थे। अपनी समस्या के समाधान के लिए वे माता अदिति और कश्यपजी के पास पहुँचे। कश्यपजी ने अदिति को एक व्रत करने की सलाह दी। इस व्रत के प्रभाव से वामन भगवान का जन्म हुआ। वे राजा बलि के पास तीन पग भूमि लेने के लिए पहुँचे। राजा बलि अपनी दानशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु थे। वे वामन भगवान को पहचान गए कि वे विष्णु का अवतार हैं। वे नहीं चाहते थे कि राजा बलि तीन पग भूमि दान देने का संकल्प ले इसलिए वे कमण्डल में छुप कर बैठ गए। कमण्डल की डंडी छोटी थी अत: एक लघु रूप धारण कर शुक्राचार्य उसमें छुप गए। जल की धारा में व्यवधान से राजा बलि संकल्प न ले सके। अत: राजा ने उस डंडी में एक छोटी लकड़ी डाल दी, जिससे शुक्राचार्य की एक आँख चली गई। वे बाहर आ गए। राजा बलि ने तीन पग भूमि देने का संकल्प ले लिया। एक पग में आकाश लोक, दूसरे में पृथ्वी लोक। तीसरा पग बलि ने अपने सिर पर रखवा लिया। बलि को पाताल लोक का राजा बना दिया।
महर्षि वेदव्यास की कथा
व्यासजी के बारे में कथन है- "व्यासं वन्दे जगत् गुरुम्।"
व्यासजी को भगवान् विष्णु का अवतार माना जाता है। भारतीय संस्कृति के महानतम गुरु में इनकी तुलना की जाती है। इनके पिता का नाम ऋषि पाराशर तथा माता का नाम सत्यवती था।
इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। विद्वानों का मत है कि वेदों का वर्गीकरण करने का श्रेय वेदव्यास को ही प्राप्त है। महाभारत, अठारह पुराण, उपपुराण, ब्रह्म सूत्र आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों के रचयिता वेदव्यास ही हैं। श्री गणेशजी ने महाभारत ग्रन्थ के लेखन कार्य किया। व्यासजी बोलते जाते थे और गणेशजी लिखते जाते थे। इनका जन्म गुरुपूर्णिमा जिसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं को हुआ था। वर्तमान समय में युवा पीढ़ी आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाती है। व्यास पीठ का पूजन करते हैं। गुरु का स्वागत सत्कार कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
इनके चार औरस पुत्र थे- शुकदेव, धृतराष्ट्र, पांडु, विदुर। विदुर की माता दासी होने से वे दासी पुत्र कहलाए। ब्रह्माजी ने व्यासजी को अमरत्व का वरदान दिया था।
श्री राम भक्त हनुमान की कथा
हनुमानजी की भूमिका रामचरितमानस में सीतान्वेषण के कार्य में एक प्रमुख धूरी के समान है। हनुमानजी के बिना सीता की खोज का कार्य असम्भव-सा प्रतीत होता है। हनुमानजी को माता सीता ने उनके उत्कृष्ट कार्य के लिये चिरंजीवी होने का आशीर्वाद दिया था-
मन सन्तोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी।।
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना।।
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।
(रामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दो. १६/१, २, ३)
श्रीराम हनुमानजी को भरत के समान भाई मानते थे-
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुवीर हरषि उर लाये।।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।
(हनुमानचालीसा चौपाई क्र. ६)
हनुमानजी ने ही श्रीराम की सुग्रीव से भेंट कराने का दुष्कर कार्य किया था। लंका में युद्ध के समय लक्ष्मण के अचेत होने पर श्रीहनुमानजी ही सुषेण वैद्य के कहने पर संजीवनी बूटी के लिये पूरा पर्वत ही उठा कर ले आये थे। सुषेण वैद्य ने तत्काल समय पूर्व औषधि देकर लक्ष्मणजी को जीवित कर दिया था। जब तक पृथ्वी पर श्रीरामजी का नाम जपा जावेगा, तब तक हनुमानजी का सामीप्य रहेगा। रामभक्तों के उद्धारक हनुमानजी ही हैं।
लंका नरेश विभीषण की कथा
लंका में एकमात्र रामभक्त विभीषण ही थे। वे रावण के छोटे भाई थे। हनुमानजी ने सीता माता को खोजते हुए एक भवन देखा-
भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मन्दिर तहँ भिन्न बनावा।।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दोहा ४/८)
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ।।
(श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड दोहा ५)
हनुमानजी ने देखा कि विभीषण का भवन सुहावना था। वहाँ हरि का मन्दिर था। उस पर श्रीराम का आयुध अंकित था। वहाँ तुलसी लगी हुई थी। घर इससे शोभायमान था। इस दृश्य को देख कर हनुमानजी प्रसन्न हो गए।
जब विभीषण रावण को माता सीता को रामजी को सहर्ष लौटाने की सलाह देने गया तो रावण ने अपने पैरों से उस पर प्रहार कर दिया। फलस्वरूप विभीषण श्रीराम की शरण में चले गए। वहाँ श्रीराम ने उन्हें समुद्र से जल मँगवा कर तिलक करके उन्हें लंका का राजा घोषित कर दिया।
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
अस कही राम तिलक तेहि सारा।
सुमन वृष्टि नभ भई अपारा।।
(श्रीरामचरितमानस दोहा ४८/९, १० सुन्दरकाण्ड)
विभीषण को ब्रह्मा का वरदान था कि वे आजीवन धर्म का पक्ष लेंगे। समुद्र के देवता वरुण ने विभीषण को चिरंजीवी होने का आशीर्वाद दिया था।
गुरुदेव कृपाचार्य की कथा
कृपाचार्य की प्रमुख तपस्वियों में गणना की जाती है। वे कौरव तथा पांडवों के गुरु थे। उनके असाधारण कौशल के कारण भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अजर, अमर होने का वरदान दिया था। महाभारत महाकाव्य की एक कथा के अनुसार परशुरामजी द्वारा कृपाचार्य को अमरत्व का वरदान दिया था।
भगवान परशुराम की कथा
परशुरामजी को विष्णु भगवान का छठा अवतार माना जाता है। इनकी सतयुग से लेकर कलयुग तक कथाएँ प्राप्त होती हैं। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार परशुरामजी का जन्म ऋषि मुनियों की रक्षा के लिए हुआ था। परशुरामजी के पिता का नाम जमदग्नि तथा माता का नाम रेणुका था। इनका जन्म मध्यप्रदेश के जानापाव नामक स्थान पर हुआ था। वे जाति से ब्राह्मण थे। इनके चार बड़े भाई थे- रुक्मवान, सुषेण, वसु, विश्वावसु। परशुरामजी को न्याय का देवता माना जाता है। वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया को इनका जन्म हुआ था। इसे अक्षय-तृतीया भी कहा जाता है। इस दिन परशुराम की जयन्ती समारोहपूर्वक मनाई जाती है। भगवान शिव इनके गुरु थे। ये अपने पिता जमदग्रि के आज्ञाकारी पुत्र थे। एक बार माता रेणुका नदी पर जल लेने गई। वहाँ उन्होंने ऋषियों को स्नान करते देखा। इस दृश्य से उनका मन विचलित हो गया और उन्हें घर आने में देरी हो गई। जमदग्नि इस बात से क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने पुत्रों को आदेशित किया वे अपनी माता का सिर काट दें। केवल परशुरामजी ने ही उनकी आज्ञा का पालन किया और माता का सिर धड़ से अलग कर दिया। प्रसन्न होकर पिता ने उनसे वर माँगने का कहा तो उन्होंने कहा कि मेरी माता को जीवित कर दीजिए। उनकी माता पुनर्जीवित हो गई। भगवान शिवजी ने उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान दिया।
मार्कण्डेय ऋषि की कथा
मार्कण्डेय ऋषि के पिता का नाम मृकुण्डू था। इनकी माता का नाम मरुद्मती था। कुछ पौराणिक ग्रन्थों में माताजी का नाम सुमित्रा भी प्राप्त होता है। इनकी कोई सन्तान नहीं थी। दोनों पति पत्नी ने मिलकर भगवान शिव की आराधना की। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उनसे पूछा कि तुम लोग गुणहीन दीर्घायु पुत्र चाहते हो या गुणवान पुत्र जो मात्र सोलह वर्ष तक ही जीवित रहेगा। समय के साथ उनके यहाँ पुत्र-रत्न मार्कण्डेय का जन्म हुआ। पति पत्नी शिव भक्ति में लीन रहते थे। समय व्यतीत होता गया। मार्कण्डेय जी की उम्र का सोलहवाँ वर्ष प्रारम्भ हो गया। पति-पत्नी मन ही मन चिंतित रहने लगे। मार्कण्डेय भी प्रतिदिन शिव मंदिर में जाकर मनोयोगपूर्वक तपस्या में लीन रहने लगे। जिस दिन सोलहवाँ वर्ष समाप्त होने वाला था, उस दिन यमदूत मंदिर में आकर उन्हें ले जाने लगे। मार्कण्डेय जी ने अपने दोनों हाथों से शिवलिंग को पकड़ लिया और शिवभक्ति में लीन हो गए। भगवान शिव स्वयं वहाँ उपस्थित हो गए और अपने भक्त मार्कण्डेय को अमरता का वरदान दिया। इस प्रकार भगवान शिव की कृपा से उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त हो गया।
नरसिंह पुराण की कथा के अनुसार श्रावण मास के पावन अवसर पर ही मार्कण्डेय जी ने शिव आराधना की थी। महामृत्युञ्जय मन्त्र के रचयिता इन्हें ही माना जाता है। ✒ डॉ. शारदा मेहता, उज्जैन