CHHAAVA का छलावा - असीरगढ़ के किले पर भीड़ का हमला, औरंगजेब के खजाने की तलाश

बहु चर्चित बॉलीवुड फिल्म छावा का मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले में बड़ा असर दिखाई दे रहा है। छत्रपति राजा सम्भाजी जी के बलिदान पर भावुक होकर सिनेमा हॉल से बाहर निकले लोगों की भीड़ ने असीरगढ़ के किले पर हमला कर दिया। इसलिए नहीं कि वह औरंगजेब से नफरत करने लगे हैं बल्कि इसलिए क्योंकि वह औरंगजेब का छुपाया हुआ खजाना प्राप्त करना चाहते हैं। बुरहानपुर के कुछ खेतों में और कुछ प्राचीन खंडहरों में भी खुदाई शुरू हो गई है। बड़ी अजीब सी स्थिति बन गई है और प्रशासन कंट्रोल नहीं कर पा रहा है। 

हर तरफ खजाने के लिए खोदे गए गड्ढे नजर आ रहे हैं

मध्यप्रदेश के बुरहानपुर जिला मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर दूरी पर इंदौर इच्छापुर हाइवे पर खंडवा रोड़ पर ऐतिहासिक असीरगढ़ किले के लिए मशहूर असीर गांव आजकल खजाने के लिए खेतों में हो रही खुदाई के लिए चर्चा का विषय बना हुआ है। पिछले तीन दिन से फिर यहां खुदाई करने का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। इसमें सैकड़ों लोगों की भीड़ आधी रात को मोबाइल टॉर्च के उजाले में खेतों को खोद रही है। दावा है कि यहां सोने के सिक्के मिल रहे हैं। वहीं वीडियो सामने आने पर निंबोला थाना पुलिस मौके पर पहुंची। हर तरफ खोदे गए गड्ढे नजर आए। 
प्रशासनिक अधिकारियों का मानना है कि, फिल्म छावा के बाद संभवता यह अफवाह उड़ी। फिल्म में दिखाया है कि औरंगजेब ने किले में अपनी टकसाल बनाई थी। इसका खजाना खेतों में दबा है। फिल्म देखने के बाद लोग असीरगढ़ के किले के आसपास खजाने की तलाश में पहुंचे और खुदाई कर दी। बताया जा रहा है कि लोग गैंती फावड़ा लेकर जगह जगह सिक्कों की तलाश में खुदाई कर रहे है। 

असीरगढ़ किले की कहानी

मध्यप्रदेश के बुरहानपुर जिले में असीरगढ का ऐतिहासिक क़िला बहुत प्रसिद्ध है। असीरगढ़ क़िला बुरहानपुर से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में सतपुड़ा पहाड़ियों के शिखर पर समुद्र सतह से 250 फ़ुट की ऊँचाई पर स्थित है। इसकी गणना विश्व विख्यात उन क़िलों में होती है, जो दुर्भेद और अजेय, माने जाते थे। मुगल इतिहासकारों ने इसका 'बाब-ए-दक्खन' (दक्षिण का द्वार) और 'कलोद-ए-दक्खन' (दक्षिण की कुँजी) के नाम से उल्लेख किया है, क्योंकि इस क़िले पर विजय प्राप्त करने के पश्चात दक्षिण का द्वार खुल जाता था, और विजेता का सम्पूर्ण ख़ानदेश क्षेत्र पर अधिपत्य स्थापित हो जाता था। 

इस क़िले की स्थापना अहीर क्षत्रिय ने की थी। स्थापना की तिथि एवं संवत का उल्लेख नहीं मिलता है। कुछ भारतीय इतिहासकार इस क़िले का महाभारत के वीर योद्धा गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा की अमरत्व की गाथा से संबंधित करते हुए उनकी पूजा स्थली बताते हैं। बुरहानपुर के 'गुप्तेश्वर  महादेव मंदिर' के समीप से एक सुंदर सुरंग है, जो असीरगढ़ तक लंबी है। ऐसा कहा जाता है कि, पर्वों के दिन अश्वत्थामा ताप्ती नदी में स्नान करने आते हैं, और बाद में 'गुप्तेश्वर' की पूजा कर अपने स्थान पर लौट जाते हैं। सुबह जब पुजारी आते हैं तुमने यहां पर अभिषेक, श्रंगार और संपन्न हो चुकी पूजा सामग्री मिलती है। ऐसा वर्षों से होता आ रहा है।

असीरगढ़ के किले का मुगल कनेक्शन 

फ़िरोज़शाह तुग़लक़ के एक सिपाही मलिक ख़ाँ के पुत्र नसीर ख़ाँ फ़ारूक़ी को असीरगढ़ की प्रसिद्धि ने प्रभावित किया। वह बुरहानपुर आया। उसने आशा अहीर (असीरगढ़ के किले के निर्माता) से भेंट कर निवेदन किया कि "मेरे भाई और बलकाना के ज़मीदार मुझे परेशान करते रहते हैं, एवं मेरी जान के दुश्मन बने हुए हैं। इसलिए आप मेरी सहायता करें और मेरे परिवार के लोगों को इस सुरक्षित स्थान पर रहने की अनुमति दें, तो कृपा होगी"। आशा अहीर उदार व्यक्ति था, उसने नसीर ख़ाँ की बात पर विश्वास करके उसे क़िले में रहने की आज्ञा दे दी। 

शरणार्थी नसीर ख़ाँ ने विश्वास घात किया

नसीर ख़ाँ ने पहले तो कुछ डोलियों में महिलाओं और बच्चों को भिजवाया और कुछ में हथियारों से सुसज्जित सिपाही योद्धाओं को भेजा। आशा अहीर और उसके पुत्र स्वागत के लिए आये। जैसे ही डोलियों ने क़िले में प्रवेश किया, सिपाहियों ने डोलियों में से निकलकर एकदम आशा अहीर और उसके पुत्रों पर हमला किया गया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। इस प्रकार देखते ही देखते नसीर ख़ाँ फ़ारूक़ी का इस क़िले पर अधिकार हो गया।

असीरगढ़ के किले की खास बात

आदिलशाह फ़ारूक़ी के देहांत के बाद असीरगढ़ का क़िला बहादुरशाह के अधिकार में आ गया था। वह दूर दृष्टि वाला बादशाह नहीं था। उसने अपनी और क़िले की सुरक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं की थी। सम्राट अकबर असीरगढ़ की प्रसिद्धि सुनकर इस किले पर अपना अधिपत्य स्थापित करने के लिए व्याकुल हो रहा था। उसने दक्षिण की ओर पलायन किया। जैसे ही बहादुरशाह फ़ारूक़ी को इस बात की सूचना मिली, उसने अपनी सुरक्षा के लिए क़िले में ऐसी शक्तिशाली व्यवस्था की, कि दस वर्षों तक क़िला घिरा रहने पर भी बाहर से किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ी। 

विश्वासघाती के बेटे के साथ विश्वासघात - मुगल, मुगल का ना हुआ

सम्राट अकबर ने असीरगढ़ पर आक्रमण कराना प्रारंभ कर दिया था, एवं क़िले के सारे रास्ते बंद कर दिये थे। वह क़िले पर रात-दिन तोपों से गोलाबारी करने लगा था। इस प्रकार युद्ध का क्रम निरंतर चलता रहा, परंतु अकबर को हर बार असफलता का ही मुंह देखना पड़ा था। उसने अपने परामर्शदाताओं से विचार-विमर्श किया, तब यह निश्चित हुआ कि बहादुरशाह से बातचीत की जाए। संदेशवाहक द्वारा संदेश भेजा गया। साथ ही यह विश्वास भी दिलाया गया कि बहादुरशाह पर किसी भी प्रकार की आँच नहीं आएगी। बहादुरशाह ने सम्राट अकबर की बात पर विश्वास किया। वह उससे भेंट करने के लिए क़िले के बाहर आया। बहादुरशाह फ़ारूक़ी ने अभिवादन किया और तत्पश्चात बात प्रारंभ हुई। बातचीत चल ही रही थी कि एक सिपाही ने पीछे से बहादुरशाह पर हमला कर दिया और उसे जख्मी कर बंदी बना लिया। उसने अकबर से कहा "यह तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया" है। इस पर अकबर ने कहा कि "राजनीति में सब कुछ जायज है।" 

असीरगढ़ किले पर अकबर का कब्जा

फिर अकबर ने राजनीतिक दांव-पेंच और छल-कपट से क़िले के क़िलेदारों और सिपाहियों का सोना, चाँदी, हीरे, मोतियों से मूंह भर दिया। इन लोभियों ने क़िले का द्वार खोल दिया। अकबर की फ़ौज क़िले में घुस गई। बहादुरशाह की सेना अकबर की सेना के सामने न टिक सकी। इस तरह देखते ही देखते 17 जनवरी सन् 1601 ई. को असीरगढ़ के क़िले पर अकबर को विजय प्राप्त हो गई और क़िले पर मुग़ल शासन का ध्वज फहराने लगा।

विश्वासघाती का सब कुछ तबाह हो गया

अकबर की सेना ने बहादुरशाह के पुत्रों को बंदी बना लिया। अकबर ने बहादुरशाह फ़ारूक़ी को ग्वालियर के क़िले में और उसके पुत्रों को अन्य क़िलों में रखने के लिए भिजवा दिया। जिस प्रकार फ़ारूक़ी बादशाह ने इस क़िले को राजनीतिक चालों से, धूर्तता से प्राप्त किया था, ठीक उसी प्रकार यह क़िला भी उनके हाथों से जाता रहा था। इस प्रकार असीरगढ़ और बुरहानपुर पर मुग़लों का आधिपत्य स्थापित होने के पश्चात फ़ारूक़ी वंश का पतन हो गया। 

असीरगढ़ के किले में औरंगजेब का खजाना

प्रसिद्ध इतिहासकार फ़रिश्ता लिखता है कि, "अकबर जैसे सम्राट बादशाह को भी असीरगढ़ क़िले को हासिल करने के लिए 'सोने की चाबी' का उपयोग करना पड़ा था"। अकबर के शासनकाल के पश्चात यह क़िला सन् 1760 ई. से सन् 1819 ई. तक मराठों के अधिकार में रहा। मराठों के पतन के पश्चात यह क़िला अंग्रेज़ों के आधिपत्य में आ गया। सन् 1904 ई. से यहाँ अंग्रेज़ी सेना निवास करती थी। असीरगढ़ का क़िला तीन विभागों में विभाजित है। ऊपर का भाग असीरगढ़, मध्य भाग कमरगढ़ और निचला भाग मलयगढ़ कहलाता है। 

इस प्रकार इतिहासकारों ने स्पष्ट कर दिया है कि असीरगढ़ के किले में कभी कोई ऐसा खजाना नहीं छुपाया गया जो अंग्रेजों के बाद किले में शेष रह गया हो। इतिहासकारों ने बड़े विस्तार से बताया है कि किस प्रकार अंग्रेजों की सेवा असीरगढ़ के किले के कोने-कोने में मौजूद थी और यहां के मूल्यवान पत्थर भी अपने साथ ले गई थी। दरअसल फिल्म देखने के बाद लोग भ्रम का शिकार हो गए हैं। भूल गए कि औरंगजेब के बाद अंग्रेज भी आए थे।

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