CM Sir, मध्य प्रदेश स्कूल शिक्षा की 14 गड़बड़ियां और दो घोटाले पढ़िए Khula Khat

मध्यप्रदेश में शिक्षा विभाग जमीनी हकीकत से दूर नई-नई योजनाएँ बनाने और पालन कराने की कवायद में लगा रहता है, पर जमीन पर कुछ नहीं बदल रहा। कागजों में भले ही वाहवाही लूटी जा रही हो, पीठ ठोकी जा रही हो, पर वास्तविकता में जमीन पर हालात बेहद खराब हैं।

1. स्कूल शिक्षा का घोटाला समझिए, कैसे 100 का 20 हो जाता है

राज्य शिक्षा केंद्र द्वारा कराई जा रही बोर्ड परीक्षाओं में कागजों पर रिजल्ट बता रहा है कि 5वीं और 8वीं में 85 से 90% विद्यार्थी उत्तीर्ण हो रहे हैं। वास्तविकता यह है कि उनमें से 10% बच्चे भी ठीक से लिखना नहीं जानते और न ही वे किताब पढ़ पाते हैं। परीक्षा में पास हुए बच्चों में से 15 से 20% बच्चों ने तो परीक्षा ही नहीं दी होती; वे कभी स्कूल ही नहीं गए होते। उनकी परीक्षा तो दूसरे बच्चों से कॉपी लिखवाकर करा ली जाती है। 8वीं कक्षा तक बोर्ड की परीक्षा बोर्ड द्वारा आयोजित हो रही है। इसका एक प्रमाण कक्षा 9वीं में आयोजित होने वाले प्री-टेस्ट के रिजल्ट से भी मिलता है। कक्षा 9वीं के प्री-टेस्ट के रिजल्ट बताते हैं कि 95% बच्चे प्राथमिक स्तर का भी ज्ञान नहीं रखते। इसके उपरांत वही बच्चे 9वीं कक्षा में प्रवेश लेते हैं। प्रवेश भी 70-80% बच्चे ही लेते हैं, क्योंकि शेष 20-30% बच्चे तो कभी पिछली कक्षा में भी स्कूल नहीं गए होते और न ही उन्हें पता होता है कि वे परीक्षा में भी बैठे थे और पास भी हो गए हैं। अब लोक शिक्षण संचालनालय कहता है कि 9वीं कक्षा के बच्चों को ब्रिज कोर्स पढ़ाओ और बोर्ड परीक्षा पास कराओ। अब जो बच्चा पढ़ना-लिखना नहीं जानता, उस बच्चे को तीन माह में ब्रिज कोर्स रूपी संजीवनी बूटी खिलाकर 9वीं और 10वीं कक्षा पास करने योग्य बनाना है। ब्रिज कोर्स की किताबें भी समय पर विद्यालयों को नहीं पहुँचतीं और जो दी जाती हैं, वे बच्चों की संख्या के मान से भी कम दी जाती हैं। दूसरी समस्या यह है कि जो बच्चा 8वीं तक स्कूल नहीं आया, वह 9वीं में स्कूल कैसे आने लगेगा? अब चूँकि उसने 8वीं तक पढ़ाई की ही नहीं है और वह गलती से किसी दिन 9वीं में स्कूल आ भी जाता है, तो वहाँ की सख्ती और पढ़ाई देखकर दोबारा लौटकर स्कूल नहीं आता। अब बच्चा स्कूल नहीं आ रहा, तो मास्टर दोषी है; उसकी वेतन वृद्धि रोक दो। 9वीं की परीक्षा में भी येन-केन-प्रकारेण 30-40% बच्चों को पास कराया जाता है, अन्यथा लोक शिक्षण प्राचार्य और शिक्षकों पर कार्यवाही करेगा। अब उन बच्चों में से शिक्षक के कठोर परिश्रम के बाद 10वीं की परीक्षा में 50-60% बच्चे पास हो जाते हैं, तो समझ लीजिए कि शिक्षक ने गंगा नहा ली। अब अगर 8वीं से आँकड़ा देखें, तो 100 बच्चों में से अनुमानित 70 बच्चे 9वीं में वास्तविक प्रवेश हुए, जिनमें से अनुमानित 35 बच्चे 9वीं में पास हुए, उनमें से अनुमानित 20 बच्चे 10वीं में पास हुए। यानी 8वीं के 100 में से 20 बच्चे ही 10वीं की परीक्षा पास कर पा रहे हैं। 

2. अपार आई डी का खेल भी निराला है

पिछले सत्र से सभी विद्यालयों को बच्चों की शत-प्रतिशत अपार आई डी बनाने का आदेश दिया गया है। अपार आई डी का खेल भी निराला है। अपार आई डी बनाने के लिए बच्चे का स्कूल का रिकॉर्ड, आधार का रिकॉर्ड एवं यू-डाइस का रिकॉर्ड एक जैसा होना चाहिए। अब समस्या यह है कि बच्चे के स्कूल के रिकॉर्ड में तो शिक्षक फेरबदल कर भी ले, पर आधार तो माता-पिता को ही सुधरवाना पड़ेगा। आधार में सुधार केवल जन्म प्रमाण पत्र से ही हो सकता है। अब जन्म प्रमाण पत्र है ही नहीं या जन्म प्रमाण पत्र का डेटा स्कूल, आधार और यू-डाइस तीनों से अलग है, फिर क्या करें? यू-डाइस में सुधार केवल बी.आर.सी.सी. के द्वारा हो सकता है। अब चूँकि इतनी ज्यादा समस्याएँ आ रही हैं, तो अपार आई डी बन नहीं पा रही। इस स्थिति में भी शिक्षकों के ही वेतन रोकने के आदेश जारी किए गए हैं। शिक्षक ही अगर जिम्मेदार है, तो फिर उसे जन्म प्रमाण पत्र, आधार कार्ड, यू-डाइस में संशोधन हेतु भी अधिकृत कर दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त आधार में संशोधन हेतु शिक्षक का प्रमाणीकरण ही मान्य कर दिया जाए। 

3. साइकल वितरण एवं छात्रवृत्ति घोटाला पेरेंट्स करते हैं

विद्यालयों में साइकल वितरण हेतु कम से कम 2 किलोमीटर की दूरी के बंधन को छोड़कर कोई बंधन नहीं है। परिणाम यह है कि 20-30% बच्चों के प्रवेश तो केवल साइकल एवं छात्रवृत्ति के लिए होते हैं। वे प्रवेश लेने के बाद न तो स्कूल आते हैं और न ही परीक्षा देते हैं। इसके अतिरिक्त, अब जब से साइकल हेतु 4500 रुपये की राशि दी जा रही है, बच्चों के माता-पिता ने साइकल खरीदना भी बंद कर दिया है। वे उस पैसे का उपयोग अन्य कार्यों में कर लेते हैं। 

4. माता-पिता पढ़ाना ही नहीं चाहते

स्कूलों में बच्चों को भेजने की जिम्मेदारी बच्चों के माता-पिता की होनी चाहिए, परंतु ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर माता-पिता कृषक या मजदूर हैं। वे अपने बच्चों के नाम तो स्कूल में लिखा देते हैं, परंतु उसके बाद वे न तो यह देखते हैं कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं या नहीं। इसके अतिरिक्त, खेतों में बुआई और कटाई या तुड़ाई के समय मजदूरी बचाने के लिए अपने बच्चों को ही काम में लगा देते हैं।

5. बोर्ड परीक्षा या कलेक्टरी की परीक्षा

शिक्षा विभाग ने बोर्ड परीक्षा को ऐसा रूप प्रदान कर दिया है जैसे इस परीक्षा को पास करते ही कलेक्टर या मंत्री का पद मिलने वाला हो। अरबों रुपये बोर्ड परीक्षा के नाम पर खर्च किए जाते हैं। लगभग सभी विभागों से ऑब्जर्वर लगाए जाते हैं। सैकड़ो सरकारी वाहनों में अधिकारी लाखों का डीजल फूँकते हुए घूमते हैं। थानों में पेपर रखे जाते हैं। मोबाइल पर प्रतिबंध रहता है। कॉपियों पर रोल नंबर की जगह कोडिंग की जाती है। क्यों? इतना दिखावा, तामझाम क्यों? क्या 75 में से 25 लाने वाला विद्वान होता है और 23 लाने वाला मूर्ख? 

जो 75 में से 70 ले आएगा, क्या उसे अधिकारी बनाया जाएगा या उसे 10000 रुपये पेट भरने के लिए हर माह मुफ्त में दिए जाएँगे? जो 75 में से 25 ले आया, वह लड्डू बाँट रहा है और जो 75 में से 22 लाया, वह अपने जीवन से निराश हो रहा है और आत्मघाती कदम उठा रहा है। आज के समय में वैसे तो सरकारी नौकरियाँ हैं नहीं और जो हैं, वे बिना प्रतियोगिता परीक्षा में पास हुए मिलती नहीं हैं, तो फिर बोर्ड परीक्षा नाम के शो में अरबों रुपये बिगाड़ने की आवश्यकता क्या है? 

6. राज्य ओपन में विद्यार्थियों को प्रवेश

पिछले वर्ष शिक्षा विभाग से एक आदेश निकाला गया कि जो बच्चे 9वीं या 10वीं में फेल होकर घर बैठ गए हैं, उन्हें अनिवार्य रूप से राज्य ओपन में प्रवेश दिलाया जाए। इसके लिए प्राचार्यों को बच्चों को चिह्नित कर उनका प्रवेश कराने की जिम्मेदारी दी गई। प्रवेश न होने पर कार्यवाही की चेतावनी भी दी गई। अब खास बात यह है कि नियमित पढ़ने वाले बच्चों की फीस 1000 से 1500 रहती है, जबकि राज्य ओपन में यह फीस लगभग 2500 थी। तो जो माता-पिता अपने बच्चे को 1000 में दोबारा नहीं पढ़ा रहे, वे राज्य ओपन में प्रवेश क्यों कराएँगे? और अगर विभाग को बच्चों की इतनी ही फिक्र है, तो उन्हें सरकारी स्कूल और राज्य ओपन में निःशुल्क प्रवेश क्यों नहीं देता? 

7. बोर्ड नामांकन:-

पिछले वर्ष से कक्षा 9वीं में बच्चे के बोर्ड परीक्षा नामांकन को समग्र आई डी जोड़ दिया गया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि समग्र में जानकारी गलत होने के कारण बच्चे का नामांकन भी नहीं हो सका। उस समय भी विभाग ने आदेश दिया कि विद्यालय बच्चे के समग्र डेटा में संशोधन कराए, तभी नामांकन भरे। समग्र में संशोधन भी आधार के अनुसार ही होता है, इसलिए इसमें भी अपार आई डी जैसी परेशानी फँसी। बाद में बोर्ड नामांकन को पहले जैसे भरने की प्रक्रिया शुरू करनी पड़ी। 

8. MPTAAS

शिक्षा विभाग द्वारा अनुसूचित जाति, जनजाति की छात्रवृत्ति MPTAAS PORTAL से स्वीकृत की जाने लगी है। पोर्टल पर बच्चे को अपनी प्रोफाइल बनवानी पड़ती है। समस्या यह है कि उसके सभी दस्तावेजों में जानकारी एक समान होनी चाहिए, अन्यथा उसकी प्रोफाइल नहीं बनेगी और छात्रवृत्ति नहीं मिलेगी। इस प्रक्रिया के शुरू होने के बाद पहले वर्ष 25% बच्चों को भी छात्रवृत्ति नहीं मिली, जिसका ठीकरा भी शिक्षकों के ऊपर फोड़ा गया और उनके वेतन रोके गए। अब शिक्षक बच्चे के दस्तावेजों जैसे समग्र, आधार, जाति प्रमाण पत्र में संशोधन कैसे कराए?

9. जाति प्रमाण पत्र:-

पिछले वर्ष शिक्षकों को अनिवार्य रूप से सभी पात्र विद्यार्थियों के जाति प्रमाण पत्र बनवाने के आदेश पारित किए गए थे, जिसकी डेडलाइन भी रखी गई थी। कई शिक्षकों को इसके लिए नोटिस भी दिए गए। उस समय भरे गए लाखों फॉर्म लोक सेवा केंद्रों में आज भी सड़ रहे हैं।

10. जन्म प्रमाण पत्र:-

पिछले शिक्षा सत्र में ही शिक्षकों को बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र बनवाने के आदेश जारी किए गए। शिक्षकों ने ही बच्चों के जन्म प्रमाण पत्र हेतु फॉर्म भरकर जमा कराए।

11. शिक्षा विभाग की नई-नई योजनाएँ दूसरे विभागों पर निर्भर, पर जोर शिक्षकों पर:-

शिक्षा विभाग में शिक्षकों को कई नई योजनाओं जैसे अपार आई डी, एम पी टास छात्रवृत्ति, जन्म प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र जैसे कार्य सौंप दिए गए हैं, जो कि दूसरे विभागों के कार्य हैं। अगर उन विभागों ने अपनी जिम्मेदारी पहले ही सही से निभाई होती, तो ये परेशानियाँ खड़ी नहीं होतीं। इन परेशानियों का हल आज भी उन्हीं विभागों को देना है, परंतु वेतन शिक्षकों का रुक रहा है। उनकी निरंतर मीटिंगें लेकर उन्हें हड़काया जा रहा है।

12. 1 अप्रैल से नवीन शिक्षा सत्र:-

1 अप्रैल 2025 से नया शिक्षा सत्र प्रारंभ कर दिया गया है, जबकि इस समय समस्त मध्यप्रदेश में लगभग सभी विषयों का बोर्ड परीक्षा का मूल्यांकन चल रहा है। प्रवेश कार्य करना है। वास्तविकता यह है कि वर्तमान में मूल्यांकन के कारण कोई भी शिक्षक स्कूल नहीं जा रहा।

13. आधारभूत संरचना:-

आज भी शासकीय विद्यालयों में बच्चों और शिक्षकों के लिए भवन नहीं हैं। बिजली और पानी की व्यवस्था नहीं है। बच्चों के लिए आज भी फर्नीचर नहीं है; अभी भी बच्चे टाटपट्टी पर बैठते हैं। ग्रामीण क्षेत्र के स्कूलों में विद्युत कनेक्शन तो है, परंतु उसमें बिजली नहीं आती, क्योंकि ग्रामीण लोग विद्युत बिलों का भुगतान नहीं करते और विद्युत विभाग विद्युत डी पी ही उठा लेता है। ऐसे हज़ारों स्कूल हैं जिनमें विद्युत नहीं है, पर स्कूल शिक्षा विभाग 50000 से 100000 रुपये प्रति स्कूल प्रति वर्ष बिजली का बिल भर रहा है।

14. अधिकारियों के लिए शिकारगाह:-

शिक्षा विभाग के शासकीय विद्यालय अधिकारियों के लिए शिकारगाह हैं। किसी भी अधिकारी को विद्यालय को किस चीज की जरूरत है, उसकी क्या परेशानियाँ हैं, यह कभी नहीं दिखता। कोई भी अधिकारी विद्यालय में सुधार करने या वहाँ के शिक्षकों और बच्चों की समस्याएँ दूर करने के लिए निरीक्षण नहीं करता; वह केवल यह देखता है कि कहाँ से नोटों की व्यवस्था हो सकती है। उसकी जाँच का मुख्य बिंदु वही होता है। आज शिक्षा विभाग के अधिकारियों के लिए श्री शरद जोशी जी का व्यंग्य "जीप पर सवार इलियाँ" एकदम सार्थक प्रतीत होता है। 
पत्र लेखक: एक शिक्षक जिसे सिर्फ पढ़ाना आता है!

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