भारतीय संस्कृति में पिता परिवार की धुरी होता है। उसका स्थान सर्वोपरि है। पांडव जब वनवास के दौरान जंगल में भटक रहे थे, तब वे प्यास से व्याकुल होकर जलाशय की खोज कर रहे थे। उन्हें एक स्थान पर जलाशय मिला। सर्वप्रथम सहदेव जलाशय पर पहुँचा। उसने हाथ में जल लेकर पीने का प्रयास किया। तभी एक अदृश्य आवाज ने सहदेव से कहा, "मेरे प्रश्नों के उत्तर दो, तभी जल ग्रहण करो।" परन्तु सहदेव ने जल पी लिया और वह अचेत हो गया। इसके बाद नकुल, अर्जुन और भीम की भी वही स्थिति हुई। अंत में धर्मराज युधिष्ठिर आए। अपने चारों भाइयों की मृतप्राय अवस्था देखकर उन्हें शंका हुई। वे जलाशय के पास पहुँचे और अदृश्य आवाज से परिचय पूछा। वह एक यक्ष की आवाज थी। यक्ष ने युधिष्ठिर से अठारह प्रश्न पूछे। सही उत्तर मिलने पर चारों भाई जीवित हो गए। उन प्रश्नों में एक प्रश्न था, "आकाश से ऊँचा कौन है?" युधिष्ठिर ने तुरंत उत्तर दिया, "पिता।" वास्तव में, सर्वोच्च स्थान पिता को ही प्राप्त है।
पुत्र के लिए पिता के लक्ष्य
पिता अपने बालक को जीवन यात्रा में सही दिशा प्रदान करते हैं। वे उसे स्व-अनुशासित जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं। वे चाहते हैं कि उनका पुत्र उद्दंड न बने, बल्कि सही मार्ग अपनाकर जीवन में उत्तरोत्तर ऊँचाइयों को प्राप्त कर पिता का नाम रोशन करे। पिता की अभिलाषा होती है कि उनकी संतान बलशाली बने, किसी के सामने न झुके और प्रत्येक समस्या का निदान निडर होकर करे। पिता हर कदम पर आने वाली समस्याओं के प्रति सतर्क रहते हैं। एक सफल पिता की हार्दिक इच्छा होती है कि जो कष्ट उन्होंने स्वयं सहन किए, वे उनकी संतान को न सहने पड़ें। पिता चाहते हैं कि उनकी संतान जीवन में किसी से धोखा न खाए और समस्याओं का समाधान निपुणता व बिना झुंझलाहट के कर ले।
संस्कृत साहित्य के एक विद्वान कवि ने कहा है:
जननी जन्मभूमिश्च जाह्नवी च जनार्दनः।जनकः पंचमश्चैव जकाराः पंच दुर्लभाः।।
अर्थात्, ये पाँच 'ज' इस संसार में दुर्लभ हैं: जननी (माता), जन्मभूमि (स्वदेश), जाह्नवी (गंगा नदी), जनार्दन (भगवान श्रीकृष्ण) और जनक (पिता)। इन पाँचों का सुख केवल भाग्यशाली व्यक्तियों को ही प्राप्त होता है।
भगवान विष्णु के साक्षात् अवतार श्रीराम को जब माता कैकयी के हठ के कारण पिता दशरथ वन भेजते हैं, तो श्रीराम धीर-गंभीर भाव से इसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। जननी कौसल्या से वन गमन की आज्ञा माँगने जाते हैं। माता कौसल्या के हृदय की विशालता देखिए:
सरल सुभाउ राम महतारी। बोली वचन धीर धरि भारी।।तात जाउँ बलि कीन्हेउ नीका। पितु आयसु सव धरमक टीका।।
(श्रीरामचरितमानस, अयोध्या कांड, दोहा 54, चौपाई 4)
अर्थात्, सरल स्वभाव वाली श्रीरामचंद्रजी की माता ने बड़ा धैर्य धरकर कहा, "हे तात! मैं बलिहारी जाती हूँ, तुमने अच्छा किया। पिता की आज्ञा का पालन करना ही सभी धर्मों का शिरोमणि है।"
पिता का स्नेह केवल पुत्र पर ही नहीं, पुत्री पर भी उतना ही होता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, पिता अपनी पुत्री पर अधिक स्नेह करते हैं। यदि माँ अपनी बेटी को कभी-कभी डाँटती है या उसे संसार की ऊँच-नीच समझाती है, तो पिता माँ को झिड़ककर टोक देते हैं और कहते हैं, "समय आने पर, जिम्मेदारी सिर पर पड़ने पर मेरी लाड़ली सब कुछ कर लेगी। वह तुमसे भी अच्छी बनेगी।"
पिता पुत्री के प्रेम की कहानी
माता-पिता अपनी लाड़ली के लिए वर तलाश रहे थे। प्रत्येक लड़के में कुछ न कुछ कमी निकाली जा रही थी। पिता का कथन था, "मैं अपनी बेटी के लिए ऐसा राजकुमार-सा वर ढूँढना चाहता हूँ, जो मेरी लाड़ली को रानी बनाकर रखे और उसे किसी भी प्रकार की कमी न होने दे। मेरी बेटी उसके साथ हमेशा हँसती-खिलखिलाती रहे।" बेटी ने पिता के कंधे पर हाथ रखकर पूछा, "पिताजी, मेरे नानाजी ने भी आप में ऐसा ही राजकुमार ढूँढा होगा, फिर आप माँ को हमेशा उलाहना देकर क्यों रुलाते रहते हैं?" ऐसी होती है पिता की पुत्री के प्रति स्नेहासक्ति। ससुराल में बेटी की विदाई के समय पिता का सिर पर रखा हाथ और आशीर्वाद उसे हमेशा स्मरण रहता है। पुत्री पिता के सुख-दुख का सहारा बनना चाहती है, पर वह अपने बच्चों की व्यस्तता में पिता को याद तो अवश्य करती है।
आधुनिक एकल परिवार और व्यस्त जीवनशैली ने हमारे संवेदनशील मानवीय रिश्तों को लगभग समाप्त-सा कर दिया है। लिखित पत्रों के माध्यम से भी दूरी बढ़ गई है। केवल फोन और व्हाट्सएप पर ही सुख-दुख के समाचार भेजकर व पढ़कर आत्मीयता व्यक्त की जाती है और उसी में सुखानुभूति प्राप्त कर ली जाती है। सबकी अपनी-अपनी विवशताएँ हैं। पुत्र हो या पुत्री, पिता परिवार का संबल है और उसका वर्चस्व सर्वोपरि है। आज भी पिता का स्थान परिवार में केंद्र बिंदु का है।
लेखक: डाॅ.श्रीमती शारदा मेहता, एम.ए.संस्कृत, 103 व्यास नगर, ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन